पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४४

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फिर कहा "पण्डित।"

अभी भी कोई नहीं बोला।

वाह भीतर क्या करता है? ओ रसिकदास स्वामी उत्तर नहीं आया।

आसमानी ने द्वार के छेद में से देखा कि ब्राह्मण बैठा भोजन करता है इसी कारण बोलता नही मन में कहा वस्तुतः यह बोलकर फिर नहीं खाता और फिर पुकारा अरे ओ रसिकदास।

किसी ने उतर न दिया।

ऐ रसराज?

भीतर से शब्द 'हुम'

आ०| बोलते क्यों नहीं, फिर खा लेना?

उत्तर आया हूं-ऊं-ऊम?

आसमानी मुंह पर कपड़ा देके खिलाखिला कर हंसी और बोली—यह लो यह बात नहीं है?

दि०| ठीक, ठीक, ठीक, तो फिर अब न खाऊंगा।

आ०| हां २ उठ कर मुझको कपाट खोलदे?

आसमानी ने छेद में से देखा कि दिग्गज ने बहुत सा भात छोड़ दिया और कहा।

'नहीं नहीं वह भात तो सब खा जाओ।

दि०| नहीं अब क्या खांऊ, अबतो बात कह दिया।

आ०| नहीं २, न खाओ तो हमको खाओ'।

दि०| राधे कृष्ण! बात कह कर कोई खाता है।

आ०| अच्छा तो मैं जाती हूं मुझको तुमसे एक बात कहनी थी, अब कुछ न कहूंगी, लो जाती हूं।

दि०| नहीं नहीं, आसमानी रूठो न, एलो मैं खाता हूं।