पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/४१

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के कहा 'रामम्भा।' गुरू ने कहा "बेटा अब तू पण्डित हो गया अब अपने घर जा मैं तुझको नहीं पढ़ा सकता है।"

गजपति ने अहंकार पूर्वक कहा यदि मै पण्डित हो गया तो मुझको कोइ उपाधि मिलना चाहिये।

गुरु बोले हां ठीक है, अच्छा मैंने तुमको विद्या दिग्गज का पद दिया। दिग्गज ने प्रसन्न होकर गुरु का चरण छू कर प्रणाम किया और घर की राह ली।

घर में आकर दिग्गज पण्डित ने विचारा कि व्याकरण तो मैं पढ़ चुका अब कुछ स्मृति पाठ करना चाहिये और सुनते हैं कि अभिराम स्वामी बडे़ पंडित हैं उनके व्यतिरिक्त और कोई हमको भलीभांति पढ़ा न सकेगा, इससे उनके पास चलना अवश्य है और तदनुसार दुर्ग में पहुंचे। अभिराम स्वामी बहुतों को पढ़ाते थे पर किसी के ऊपर विशेष स्नेह नहीं करते थे। दिग्गज भी उनही में मिल गए।

दिग्गज अपने मन में जानते थे कि मैं केवल लीला करने को उत्पन्न हुआ हूं, और इस मेरे वृन्दावन में ईश्वर ने आसमानी को गौ रूपी बनाया है। आसमानी का भी जी बहुत लगता था और कधी २ बिमला भी आकर इस कौतुक की भागी होती थी।

"आज तो मेरी राधा आती है" "वाह विधाता आज तो तू ने दया की।"

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