पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/२५

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इस बातको सुनकर बीरेन्द्रसिंह को गुस्सा आगया और आंखें लाल होगईं। अभिराम स्वामी ने उनकी चेष्टा देखकर कहा, बीरेन्द्र! गुस्सा न करो हम तुमको दिल्ली के महाराज के पक्षपाती होने को कहते हैं कुछ मानसिंह का अनुगामी होना नहीं कहते।

बीरेन्द्रसिंह ने दहिना हाथ फैलाकर परमहंस को दिखाया और बायें हाथ की उंगली से शपथ कर कहा 'आपके चरण के प्रभाव से इसी हाथसे मानसिंह का नाश करूंगा'

अभिराम स्वामी ने कहा ज़रा शान्त हो क्रोध बस हो कर अपना काम बिगाड़ना न चाहिये मानसिंह को उसके अपराधों का दण्ड देना उचित है पर अकबरशाह से लड़ने में क्या लाभ होगा?

बीरेन्द्र ने क्रोध से कहा कि अकबर के पक्षपाती होने से उसके सेनापति के आधीन होना होगा, उसकी सहायता करनी पड़ैगी और मानसिंह के अतिरिक्त और कौन सेनापति है? गुरु देव! जबतक देह में प्राण है तब तक तो यह कर्म्म बीरेन्द्रसिंह से न होगा।

यह सुनकर अभिराम स्वामी चुप हो रहे फिर कुछ कालान्तर में बोले 'क्या पठानों की सहायता करनी तुम्हारे मन में है?'

बीरेन्द्र ने उत्तर दिया 'पक्षापक्ष के भेद से क्या लाभ होगा?' अभिराम स्वामी लम्बी सांस लेकर फिर चुप रहे और आंखों में आंसू भर लाये। बीरेन्द्रसिंह ने उनकी यह दशा देख कहा 'गुरूजी क्षमा कीजिये'। मैने बिना जाने यदि कोई अपराध किया हो तो बताइये।