वीरेन्द्रसिंह ने दिल्ली में जाकर राजपूतों की सेवा करली और अपने गुण करके थोड़े ही दिनों में 'पदवी' पाई कुछ दिन में खूब धन और यश संचय किया। इतने में पिता के मरने का समाचार मिला और नौकरी छोड़ कर घर चले आये। दिल्ली से उनके साथ बहुत से लोग आये थे, उनमें एक दासी और एक परमहंस भी थे। परिचारिका का नाम विमला और परमहंस का नाम अभिराम स्वामी था।
विमला को हमने परिचारिका करके लिखा है वही परिपाटी अभी चली जायगी, वह घर में गृहस्थी के कर्म और विशेष कर बीरेन्द्रसिंह की लड़की का लालन पालन किया करती थी इसके अतिरिक्त और कोई काम वह नही करती थी परन्तु, उसके लक्षण दासी के से न थे। जैसे गृहिणी का आदर होता है उसी प्रकार उसका भी होता था ओर सब लोग उस को मानते थे रूप भी उसका कुछ बुरा न था उस की ढलती हुई जवानी देख कर ज्ञात होता था कि अपने समय में वह एकही रही होगी। गजपति विद्या दिग्गज नामी अभिराम स्वामी का एक शिष्य था यद्यपि उसको अलंकर शास्त्र का कुछ ज्ञान न था परन्तु रस अंग अंग से भरा था। उसने विमला को देखकर कहा परचारिका तो घड़े के घी की प्रकृति रखती है ज्यों ज्यों कामाग्नि कम होती है त्यों २ शरीर उसका पुष्ट होता जाता है।'
जिस दिन गजपति विद्या दिग्गज ने यह बोली बोली उसी दिन से विमला ने उनका नाम 'रसिकदास स्वामी, रक्खा।
विमला विधवा थी कि सधवा यह कोई नहीं जानता था पर आचरण उसके सब सधवा के थे।