पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी प्रथम भाग.djvu/१७

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तृतीय परिच्छेद।

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नवीन सेनापति।

शैलेश्वर के मन्दिर से चलकर युवराज ने 'लशकर' में पहुंच कर पिता से कहा कि पचास सहस्त्र सेना लेकर पठान लोग धरपुर के ग्राम में डेरा डाले पड़े हैं और आस पास के गांवों को लूट रहे हैं वरन स्थान स्थान पर दुर्गनिर्माण पूर्वक निर्विघ्न रूप वास करते हैं। मानसिंह ने सोचा कि इस उपद्रव को शीघ्र शान्त करना चाहिये किन्तु यह काम बड़ा कठिन है और संपूर्ण सेना को एकत्र करके सबको सुनाकर कहा कि "क्रमशः गांव २ परगना २ दिल्ली के महाराज के हाथ से निकला जाता है अब पठानों को दण्ड अवश्य देना चाहिये तुम लोग बताओ कि इसका क्या उपाय है? उनकी सेना भी हमसे बढ़कर है, यदि उनसे युद्ध करैं तो पहिले तो जीतने की सम्भावना नहीं और यदि ईश्वर सहाय हो तो उनको देश से निकालना सहज नहीं है। सब लोग विचार कर देखो यदि लड़ाई में हार गये तो फिर प्राण बचाना कठिन है किन्तु उड़ीसा के पुनः प्राप्ति की आशा भी न छोड़ना चाहिये। सैयदखां की भी राह देखना उचित है और बैरी दमन का भी उपाय अवश्य है अब तुम लोगों की क्या राय है?"

बूढ़े २ सेनाध्यक्षों ने एक मत होकर उत्तर दिया कि सैयदखां का मार्ग प्रतीक्षा अवश्य करना चाहिए मानसिंह