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द्वितीय खण्ड ।


एक ओर चिता सजी है । गजकुमार ने पूछा 'यह क्या व्यापार हे?

उसमान ने उत्तर दिया कि यह सब मेरी आशा से बनाया गया है आज यदि मैं मारा जाऊं तो मुझको इस 'कबर' में गाड़ दीजियेगा और कदाचित आप मारे जाय तो किसी ब्राह्मण से आप को इसी चिता पर फुकवा दूंगा। कोई जानेगा भी न ।' .

राजपत्र ने आश्चर्य से कहा मैं इसका अर्थ नहीं समझा' उसमान ने कहा 'हमलोग पठान हैं, जब हमारा अन्तःकरण जलता है तो उचित अनुचित नहीं विचारते ! इस पृथ्वी पर आयेशा के चाहने वाले दो नहीं रह सके, एक को यहीं प्राण देना पड़ेगा।

अब तो बातें खुल पड़ी। राजकुमार ने पूछा फिर तुम्हारी क्या इच्छा है?

उसमान ने कहा ' आप के हाथ में शस्त्र है, मुझ से युद्ध करो यदि तुम्हारे में समर्थ हो मुझको मारकर आप अकंटक चैन करो नहीं मैं तो तुम्हारा प्राय लेने को खड़ाही हूं।'

और उत्तर की आशा न करके जगतसिहं के ऊपर आघात करने लगा। राजकुमार ने भी तुरन्त म्यानसे तलवार निकाल अपनेको बचाया। उसमान बारम्बार राजकुमार के प्राण लेन का उद्योग करता रहा पर राजकुमार ने एक भी हाथ नहीं चलाया केवल अपने शरीर की रक्षा करते रहे ! दोनों शस्त्र विद्या में निपुण थे अतएव कोई पराजित नहीं हुआ। राजकुमार को बहुत चोट लगी और चारो ओर से रुधिर बहने लगा और कुछ सिथिलता भी आने लगी। अपनी यह दशा देख कातर घर से बोले 'उसमान ठहर आओ मैंने हार मानी ।'