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दुर्गेशनन्दिनी।



कतलूखां का हाथ पकड़ा दिया।

जगतसिंह को बड़ा कोप हुआ पर चुप रहे बोले नहीं।

कतलूखां ने फिर कहा 'बालक सब युद्ध प्यास "

आयेशा ने तुरन्त शरबत पिलाया।

'युद्ध - कुछ काम नहीं-सन्धि !'

जगतसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया कतलूखां मुंह देखने लगा। फिर कष्ट से बोला 'स्वीकृत नहीं है ?

युवराज ने कहा 'यदि पठान दिल्लीश्वर के आधीन हो जाय तो स्वीकार किया ।

कतलूखां ने फिर कहा 'उडिस्सा ?

जगतसिंह ने उत्तर दिया 'यदि कार्य सिद्ध हुआ तो तुम्हारे पुत्रों से उङिस्सा न छूटेगा।'

कतलूखां के चेहरे की रंगत हरी हो भाई और बोला, आप छूटे- जगदीश्वर-उत्तम'

जगतसिंह जाने लगे तब आयेशाने झुक कर पिता के कान में कुछ कह दिया । कतलूखां ने ख्याजा ईसा की ओर देख कर राजपुत्र की ओर देखा ख्वाजा ने राजपुत्र से कहा 'जान पड़ता है कि अभी आप से कुछ कहना है।'

राजपुत्र लोट आये। कतलूखां ने कहा 'कान ।'

राजपुत्र समझ गये और समीप जाकर झुक कर कसलूखां के मुंह के पास कान कर दिया।

कतलूखां ने कहा 'बीर।'

ठहर गया फिर बोला 'बीरेन्द्रसिंह-प्यास'

आयेशा ने फिर शरबत दिया ।

बीरेन्द्रसिंह की कन्या ।'

राजपुत्र को सांप सा डस गया और चिहुंक कर दूर खड़े