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द्वितीय खण्ड।


युवराज में आश्चर्य से कहा 'क्या?

उसने कहा 'महल में किसी ने आकर नवार साहेब को मारा और मागगया। अभी प्राण है,किन्तु अब कुछ आशा नहीं माप शीघ्र चलें नहीं तो फिर भेंट न होगी।'

राजपुत्र ने कहा 'ऐसे समय में मेरे बुलाने का क्या 'कारण है!'

उसने कहा में नहीं जानता, में तो केवल सवाद देने आया हूं।'

युवराज दूत के साथ चले महल में पहुंच कर देखा कि कतलखां के जीवन का दीप टंदा होने चाहता है। उसमान आयेशा और,और और पुत्र पुत्री,पत्ती उपपत्नी,दास दासी और मंत्री आदि सब बैठे बाड़ मार मार रो रहे हैं किन्तु आयेशा मन ही मन रोती थी,आंसु की धारा दोनों कपोलों के ऊपर होकर बह रही थी।पिता का सिर गोद में लिये चुप चाप बैठी थी।

जगतसिंह ने देखा कि वह बड़ी धीर बैठी हैं 'निर्वात निकम्प मित्र प्रदीपम्।

राजकुमार के पहुंचते ही इसाखां नाम खोजा ने उनका हाथ पकड़ कतलखां के समीप लेजाकर चिल्ला के बोला' युकराज जगतसिंह आये हैं।'

कतलूखां ने कहा 'शत्रु, मैं मरता हूँ मेरा कहा सुना साफ।'

जगतसिंह ने कहा'इस समय मैने माफ़ किया।'

कत्तलखां ने फिर कहा 'स्वीकार कीजिये तो कुछ कहूं।"

जगतसिंह ने पूछा कि क्या स्वीकार कर!'

कतलूखां ने कहा मेरा हाथ।'

अभिप्राय समझ उसमान ने जगतसिंह का हाथ पकड़