पृष्ठ:दुर्गेशनन्दिनी द्वितीय भाग.djvu/६१

यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५८
दुर्गेशनन्दिनी।


नहीं पाया अंगूठी वालेने तिलोत्तमा के समीप आकर कहा 'अब मैं जाता हूँ।'

तिलोत्तमा ने निषेध किया पर दासी ने कहा 'हाँ!' प्रहरी ने कहा 'तो तुम्हारे पास जो अंगूठी है उसको फेर दो।'

तिलोत्तमा ने अंगूठी उतार कर उसको दे दिया और वह चला गया।।

 

पन्द्रहवां बयान।
मुक्त कंठ।

जब तिलोत्तमा और दासी दोनों बाहर चली गयीं आयेशा पलङ्ग पर बैठ गयी क्योंकि वहाँ कोई और बैठने का स्थान तो थाही नहीं। और जगतसिंह समीप ही खड़े रहे।

आयेशा जूड़े में से एक गुलाब का फूल लेकर नोचने लगी और बोली 'राजकुमार आप की चेष्टा से जान पड़ता है कि आप मुझ से कुछ कहेंगे! यदि मैं आप का कोई काम करसक्ती हूं तो आप बिना संकोच कहें मैं प्रसन्नता पूर्वक करूँगी।'

राजकुमार ने कहा 'नवाब पुत्री!' मैं किसी प्रयोजन के निमित्त तुमसे साक्षात करना नहीं चाहता था किन्तु अपनी दशा देख कर मुझको ज्ञात होता है कि अब हमसे तुमसे देखा देखी न होगी, यह अन्त समय जान पड़ता है। मैं तुम्हारा चिर बाधित हूँ इसका प्रतिउपकार कैसे हो? अपने अदृष्ट से मुझको यह भरोसा नहीं है कि तुम्हारा कोई काम करसकूँ अतएव निवेदन करता हूँ कि यदि कोई अवसर आवे तो तुम आशा करने में संकोच न करना। जैसे बहिन भाई से कहने में संकुचती नहीं उसी प्रकार अब तुम भी करो।