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द्वितीय खण्ड।


मण्डली बांधे खड़े थे युवराज ने मन में अनुमान किया कि कोई कौतुक होता होगा परन्तु बीच की वस्तु नहीं देख पड़ती थी जब उनमें से कुछ लोग चले गए राजपुत्र का संशय दूर हुआ दिखा कि एक मनुष्य हाथ में कुछ पत्रे लिये लोगों को कुछ सुना रहा है। उसी समय युवराज की कोठरी में उसमान का प्रवेश हुआ।

उसमान ने पूछा "आप क्या देखते हैं?"

राजपुत्र ने कहा 'कटहरे में से देखो।'

उसमान ने देख कर कहा 'क्या आपने इसको कभी देखा नहीं?'

राजकुमार ने उत्तर दिया 'नहीं'।

उसमान ने कहा वह तो आपका ब्राह्मण है, कथा, वार्ता करने में बड़ा चतुर है, उसको मान्दारणगढ़ में मैंने देखा था।

राजकुमार मन में चिन्ता करने लगे कि यदि वह मान्दारगढ़ रहा है तो क्या तिलोत्तमा के विषय में कुछ न जानता होगा? बोले 'महाशय इसका नाम क्या है?'

उसमान ने सोच कर कहा उसका नाम कुछ कठिन है। शीघ्र स्मरण नहीं होता, गनपत? न गनपत कि जगपत, ऐसाही कुछ नाम है।

"जगपत" नाम तो इस देश में नहीं होता और यह तो बंगाली है।

हाँ बंगाली तो है, भट्टाचार्य्य उसकी एक अल्ल भी है, इलम या क्या?

बंगालियों के अल्ल में 'इलम' शब्द नहीं होता। यह तो फ़ारसी शब्द है, इलम को बँगला में विद्या कहते हैं।

हाँ हाँ विद्या ठीक है। बँगला में हाथी को क्या कहते हैं?