यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८३
असफल शिक्षा

इसके १० वर्ष बाद सर चार्ल्स ट्रिवेलियन ने, जो लार्ड मेकाले के कोई सम्बन्धी थे और जो जोन कम्पनी में भिन्न भिन्न पदों पर काम करते करते मदरास के गवर्नर और भारत की सुप्रीम कौंसिल के सदस्य तक हो गये थे, अपनी 'भारतीय लोगों की शिक्षा' विषयक पुस्तक में इस प्रश्न पर विचार किया और वे इस निश्चय पर पहुँचे हैं कि केवल १० लाख 'मुहरें प्रति वर्ष भारतीयों की शिक्षा पर व्यय करके हम उन्हें अपना शासन-स्वीकार करा सकते हैं और उन्हें अपनी मैन्नी के योग्य बना सकते हैं।' वे अत्यन्त दुष्टता के साथ लिखते हैं कि:—

"इस मार्ग का अनुसरण करके हम कोई नया प्रयोग नहीं करने जा रहे हैं। रोमन लोगों ने योरप की सब जातियों को तुरन्त अपनी सभ्यता के सांचे में डालकर अपना अनुयायी बना लिया था। या दूसरे शब्दों में, उन्हें रोम के साहित्य और कला की शिक्षा देकर, तथा उनके हृदयों में विजेताओं का विरोध करने के बजाय उनकी प्रतिद्वन्द्विता करने का भाव पैदा करके अपने अनुकूल कर लिया था। युद्ध में अधिक बल से जो अधिकार प्राप्त होते थे वे शान्ति की अधिक बली कलाओं से भली भांति दृढ़ कर लिये जाते थे। और इससे जो लाभ होते थे उनमें प्रथम के अत्याचारों की स्मृति नष्ट हो जाती थी। इटली, स्पेन, अफ्रीका और गौल के निवासियों में रोमन लोगों का अनुकरण करने और उनके साथ उनकी सुविधाओं में भाग लेने के अतिरिक्त और कोई आकांक्षा ही नहीं रह गई थी। वे अन्त तक रोम-साम्राज्य के भक्त बने रहे। और यह संघ आन्तरिक विद्रोह से नहीं बल्कि बाह्य आक्रमण से टूटा था जिसमें विजित और विजेता दोनों एक साथ परास्त हुए थे। (मुझे आशा है कि शीघ्र ही भारत के लोगों का हमारे साथ वह सम्बन्ध स्थापित हो जायगा जो हम लोगों का किसी समय में रोम के साथ था) 'टैसिटस' कहता है कि 'जूलियस एग्रीकोला' की यह नीति थी कि वह ब्रिटेन के प्रमुख व्यक्तियों के पुत्रों को रोमन साहित्य और विज्ञान की शिक्षा देता था और उनमें रोमन सभ्यता की अच्छाइयों के लिए सुरुचि उत्पन्न करता था। हम सब जानते हैं कि यह उपाय कहाँ तक सफल हुआ। कट्टर शत्रु होने की अपेक्षा शीघ्र ही ब्रिटेन के लोग उनके विश्वासपात्र मित्र बन गये। और रोम के शासन को बनाये रखने के लिए उन्होंने इतना घोर उद्योग किया कि जितना उनके पूर्वजों ने रोमन आक्रमण को रोकने के लिए भी नहीं किया था।"

बङ्गाल में अँगरेज़ी शिक्षा के मार्ग-निर्माता रेवरेंड अलेक्ज़ेन्डर डफ़ ने भी रोमन-नीति की समानता का स्मरण किया था। 'भूतपूर्व