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अमरप्रकाश


सदैव उनके निरीक्षण करने का उद्योग करके हम लोग स्वयं उन पाठशालाओं के अभिभावकों को भी अपनी कन्यायें भेजने से रोक देते हैं।

"इसलिए पदाधिकारियों के हस्तक्षेप के कारण उच्च कोटि के लोगों में स्त्री-शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहा। और इसी हस्तक्षेप के कारण पञ्जाब में कितनी ही बातों में बड़े बड़े अनर्थ भी हो चुके हैं। अब इसका उपाय एक-मात्र यही है कि जन-साधारण की भलाई के लिये पदाधिकारी वर्ग परस्पर मिलकर कुछ समय के लिए अपना अधिकार उठा लें और जनता को इस सम्बन्ध में स्वराज्य दे दें।"

हमने अपनी ओर से अत्यन्त सावधानी से इन बड़े बड़े उद्धरणों को प्रस्तुत किया है। पाठकों पर यह प्रभाव डालने की हमारी इच्छा नहीं है कि अपना मत सिद्ध करने के लिए या मिस मेयो की अज्ञानता पूर्ण पर दुष्टतावश लिखी गई बातों को असत्य ठहराने के लिए, हमने इन प्रमाणों को बिना परिश्रम ही इकट्ठा कर लिया है। इस विषय का किञ्चित् मात्र अध्ययन भी निम्नलिखित परिणामों पर बलात् पहुँचा देता है:—

(१) कि अति प्राचीन काल से ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक सुसङ्गठित और व्यापक शिक्षण-पद्धत्ति काम कर रही थी।

(२) कि इस पद्धति के दो रूप थे। एक केवल ब्राह्मणों और उच्च कोटि के सुसंस्कृत लोगों के लिए थी जिसका उद्देश्य धार्मिक और साहित्यिक ग्रन्थाध्ययन आदि था। दूसरी व्यापारियों, किसानों और कारीगरों के लिए थी जिसका उद्देश्य आर्थिक योग्यता और कारीगरी में निपुणता प्राप्त करना था। यह पद्धति इंगलैंड की ट्यूढर पद्धति से जिसमें कि लोग स्वानुभव से काम सीखते थे, मिलती-जुलती थी।

(३)कि यह पद्धति हमारी ग्राम्य शासन-पद्धति का एक अङ्ग थी और इस देश में ब्रिटिश का अधिकार होने तक सुसङ्गठित रूप में सुरक्षित थी।

(४) कि इस पद्धति के विशेष राजनैतिक होने का भ्रम हो गया था और इससे यह ब्रिटिश शासकों द्वारा निर्मूल की गई, विशेषतः उन शासकों द्वारा जो लार्ड मेकाले के समय से अपने अधीन कर्मचारियों और किराये के टट्टू-क्लर्कों की सृष्टि करने के लिए चिन्तित थे।