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दुखी भारत

यह बात १८८० के आस पास के उदार वर्षों की है।

कदाचित् मिस मेयो समझती है कि हिन्दू स्त्रियों की शिक्षा पर कुछ लिखना 'सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा' की कहावत चरितार्थ करना है। वह सम्भवतः एबे डुबोइस के मतानुसार जिसका विश्वास नहीं किया जा सकता, लिखती है—'भारतवर्ष के लोग जैसा कि बतलाया जा चुका है स्त्री-शिक्षा के बड़े घोर विरोधी हैं।' यह पहला असत्य है। जो मदर इंडिया के अध्याय १५ में आया है। उसने भारतवर्ष की निरक्षरता की गणना के लिए एक विचित्र दुष्टता से भरा ढङ्ग निकाला है। ब्रिटिश भारत की २४,७०,००,००० जन-संख्या में ५० प्रतिशत स्त्रियाँ हैं। इसलिए जिस संख्या को साक्षर किया जा सकता है उसमें से वह १२,५०,००,००० निकाल देती है। इसके पश्चात् वह '६० लाख अछूतों' को निकालने चलती है। यह दूसरा असत्य है।

अभी हम केवल प्रथम असत्य पर विचार करेंगे। आगे चलकर हम स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में हिन्दू-मत उद्धृत करेंगे। यहाँ हम केवल स्त्रियों की वर्तमान साक्षरता की समस्या पर विचार करेंगे।

डाक्टर लीटनर ने, जिसकी बहुमूल्य पुस्तक से हम इतने उद्धरण दे चुके हैं, पञ्जाब में, ब्रिटिश शासन से कुछ ही समय पूर्व की स्त्री-शिक्षा पर बड़ा प्रखर प्रकाश डाला है[१]

"पञ्जाबी स्त्रियाँ कम या अधिक मात्रा में केवल स्वयं-शिक्षिता ही नहीं होती थीं बरन दूसरों को भी सदैव शिक्षादान करती थीं। उदाहरण के लिए पञ्जाब पर ब्रिटिश का अधिकार होने से पूर्व हमें दिल्ली में बालिकाओं की ६ सार्वजनिक पाठशालाएँ मिलती हैं जिन्हें पञ्जाबी स्त्रियाँ चलाती थीं और जो इसी कार्य्य के लिए दक्षिण में आई थीं।

"इसी प्रकार दूसरे स्थानों में भी पञ्जाबी स्त्रियां शिक्षिका का कार्य्य करती हुई पाई जाती थीं, ठीक वैसे ही जैसे वे गुरु या पाधाजी अपने प्रान्त में न पूछे जाने के कारण उसके बाहर शिक्षा देने जाते थे। मुसलमानों में कितनी ही विधवाएँ बालिकाओं को कुरान की शिक्षा देना अपना पवित्र कर्त्तव्य समझती थीं। और दिल्ली यद्यपि उत्तर पच्छिम सीमा-प्रान्त


  1. वही पुस्तक, पृष्ठ ९७-९८