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अमरप्रकाश


सर्वसाधारण में प्रचलित आरम्भिक शिक्षण-पद्धति संस्कृत-पाठशालाओं से बिलकुल स्वतन्त्र थी। 'दोनों प्रकार की शिक्षाएँ एक दूसरे पर बिलकुल निर्भर न थीं और उनमें आपस में कोई सम्बन्ध भी नहीं था।' ये आरम्भिक पाठशालायें व्यापारी कृषक और कारीगर आदि के लिए थीं और संस्कृत-पाठशालाएं धार्मिक तथा विद्वान् लोगों के लिए।

इस बात का पता लगाना कि इस राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति की उत्पत्ति कब हुई थी। कठिन है। पर इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं कि मुसलमानों के समय में यह बड़ी सफलता के साथ अपना काम करती रही और जब ब्रिटिश लोगों के हाथ में शासन की बागडोर आई तब तक यह मरी नहीं थी। सरकारी काग़जातों में इस अस्त होती हुई शिक्षण-पद्धति का जो वर्णन आया है वह यद्यपि अपूर्ण है पर उससे इसके देशव्यापी होने के सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं रह जाता। 'की' महाशय सरकारी अफ़सरों के लेखों तथा सरकारी काग़जातों में आई बातों का संक्षेप में उल्लेख करते हैं—

"ब्रिटिश सरकार के हाथों में शिक्षा का कार्य्य आने से पहले भारत में यहाँ की खास शिक्षा-पद्धति चारों तरफ़ प्रचलित थी। यह एक या दो प्रान्तों में ही कै़द नहीं थी परन्तु भारत के भिन्न भिन्न भागों में पाई जाती थी। हाँ, कुछ ज़िले औरों की अपेक्षा अधिक उन्नति पर थे। १८२२-२६ में मदरास प्रान्त में शिक्षा सम्बन्धी जाँच हुई थी। उसमें यह गणना की गई थी कि स्कूल जाने योग्य बालकों के छठे भाग से कुछ कम को किसी न किसी प्रकार की शिक्षा मिलती है। इसी प्रकार की एक जाँच १८२३-२८ में बम्बई-प्रान्त में हुई थी। उसमें शिक्षा पानेवाले बालकों की संख्या ८ में १ लिखी गई थी। बङ्गाल के एक ज़िले में आदम ने जाँच करके पता लगाया था कि सम्पूर्ण पुरुषजन-संख्या में १३.२ प्रतिशत मनुष्य शिक्षा ग्रहण करते हैं। दूसरे ज़िले में उन्होंने पता लगाया था कि स्कूल जाने योग्य आयु वाले बालकों में ९ प्रति शत बालक शिक्षा पाते हैं। विलियम वार्ड का कहना है कि बङ्गाल की पुरुष जन-संख्या के पांचवें भाग के पढ़ लिख सकने का अनुमान किया जाता था। सम्भव है भारत के कुछ भागों में जिन तीन प्रान्तों का उल्लेख किया गया है उनकी अपेक्षा पढ़ने लिखने वालों की संख्या कम हो। यद्यपि यह आरम्भिक शिक्षा देशव्यापी थी पर इसमें पुरुष-जन-संख्या का भी बहुत अधिक