यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
दुखी भारत

जब मुसलमानों के हाथ में राज्य गया तब भी ये शिक्षण-पद्धतियाँ उसी प्रकार अपना काम करती रहीं। रेवरेंड 'की' लिखते हैं[१]

"अधिक निर्दयी या अधिक कट्टर मुसलमान बादशाहों में से कुछ ने ब्राह्मणों के विद्यापीठों को नष्ट कर दिया था और विद्यार्थियों को तितर-बितर कर दिया था, पर इस रुकावट के होते हुए भी ब्राह्मणों की शिक्षा जारी रही। हिन्दू-धर्म में बौद्ध-धर्म के मिल जाने से बौद्धों की शिक्षा-सम्बन्धी संस्थाएँ धीरे धीरे नष्ट हो गईं पर कठिनाइयों के होते हुए भी ब्राह्मणों की शिक्षा का काम चलता रहा। और जब बौद्धों की शिक्षा के बड़े केन्द्र नष्ट हो गये तो ब्राह्मणों के विद्यापीठों का महत्व और भी बढ़ गया।"

सर्वसाधारण में प्रचलित प्रारम्भिक शिक्षा का उल्लेख हम पीछे कर आये हैं। यह शिक्षा उच्च कोटि की संस्कृत-शिक्षा के साथ साथ फलती-फूलती रही। यहाँ हम इसके सम्बन्ध में ज़रा विस्तार के साथ विचार करेंगे ताकि इस बात का निर्णय हो जाय कि क्या सार्वजनिक साक्षरता का वास्तव में भारत में पता नहीं था जैसा कि मिस कैथरिन मेयो हमें विश्वास दिलाना चाहती हैं।

रेवरेंड 'की' लिखते हैं।[२]:—

"ब्राह्मण, बौद्ध और मुसलिम शिक्षा-पद्धति के साथ ही साथ भारतवर्ष के अधिकांश भागों में किसी समय सर्वसाधारण में भी एक प्रकार की आरम्भिक शिक्षा का प्रचार हो उठा था। (इस शिक्षा का द्वार सबके लिए खुला रहता था।) पढ़ना-लिखना और गणित सीखने की सर्वसाधारण को आवश्यकता पड़ी होगी। उसी की पूर्ति के लिए इस शिक्षा का जन्म हुआ था। इससे व्यापारी और किसान लोग विशेष लाभ उठाते थे।"

कोष्टक के शब्द हमारे हैं। और यह स्पष्ट करने के लिए लिखे गये हैं कि यह उक्ति कि भारत की वर्तमान निरक्षरता का सम्पूर्ण या अधिकांश उत्तरदायित्व वर्णाश्रम-धर्म और ब्राह्मणों पर है, किसी अकारण झूठ से कम नहीं हैं। रेवरेंड 'की' का यह कथन बिलकुल ठीक है कि यह स्वभावतः उत्पन्न हुई


  1. 'की' के आरम्भिक शिक्षा-सम्बन्धी उद्धरण उसकी पुस्तक के पाँचवें अध्याय से लिये गये हैं।
  2. वही पुस्तक, पृष्ठ १०७।