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दुखी भारत


बेटों-बेटियों में रोग-वृद्धि, उत्साह की कमी और स्वतन्त्र विचार-शक्ति के अभाव का कारण बड़ी सरलतापूर्वक समझाया जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति यह बात जानता है, कदाचित् मिस मेयो भी, कि सामाजिक राज-नियमों ने ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, अमरीका और जापान में गत ७५ वर्षों में ही क्या परिवर्तन उपस्थित कर दिया? बालपन या युवापन आदि के जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं जो कानून और राजकीय आज्ञाओं के आक्रमण से बचा हो। केवल राष्ट्रीय शासन ही ऐसा है जो राष्ट्र के साथ मिलकर चलता है। दोनों के स्वार्थ एक दूसरे पर इतने निर्भर रहते हैं कि वे एक रूप हो जाते हैं। प्राचीन भारत में भी राज्य को सामाजिक जीवन और जन-साधारण के स्वास्थ्य से बड़ा सम्बन्ध रखना पड़ता था। ऋषियों ने हिन्दू धर्मशास्त्रों और स्मृतियों में सार्वजनिक शिक्षा, विद्यार्थी-जीवन, सार्वजनिक और व्यक्तिगत स्वास्थ्य-सुधार और विवाह आदि की खूब विवेचना की है।

आज दिन प्रत्येक राजनीतिज्ञ और नेता नागरिकों को सब प्रकार से योग्य बनाने के राजकीय उत्तरदायित्व को स्वीकार करते हैं। अब यह बात इतनी स्पष्ट हो गई है कि इस विषय पर अधिक लिखना और प्रमाण देना व्यर्थ है। पर मिस मेयो के तर्कों के लिए यह प्रश्न बड़े काम का है। इस बात को ध्यान में रखते हुए यहाँ कुछ आधुनिक लेखकों की सम्मतियाँ दे देना अनुचित न होगा।

अमरीका के समाज-शास्त्र के पंडित प्रोफ़ेसर स्काट नियरिंग अपनी एक सर्वोत्तम पुस्तक "सोशल एडजस्टमेंट" में लिखते हैं[१]:—

"एक बड़ी जाति की सामाजिक कुरीतियों के दूर करने का (एक-मात्र) उपाय यही है कि उनके विरुद्ध (कानून के रूप में) जनता के मत का प्रयोग किया जाय। बड़े समूहों में जन-मत का प्रभाव थोड़े ही समय तक पड़ सकता है पर स्थायी सुधार केवल कानून द्वारा ही सम्भव है। [कोष्ठक के शब्द हमारे हैं]

इँगलैंड के उदार दल के एक बड़े विचारशील सदस्य श्रीयुत एल॰ टी॰ हाब हाउस ने सामाजिक मामलों में राजकीय उत्तरदायित्व के वर्तमान


  1. सोशन एडजस्टमेंट (मैकमिलन, १९११) पृष्ठ ३२३