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मिस मेयो के तर्क


विदेशी शासन के जुए को उतार फेंकना चाहते हैं और स्वतन्त्र होकर एक राष्ट्र की भांति अपना पूर्ण विकास करना चाहते हैं।

परन्तु मिस मेयो के तर्क बिलकुल दूसरे प्रकार के प्रतीत होते हैं। उसकी सम्मति में राजनैतिक परिस्थिति का जातीय अयोग्यता और असमर्थता से कोई सम्बन्ध नहीं। क्या किसी राष्ट्र में स्वतन्त्र विचार और पुरुषार्थ के कार्य्य राजनैतिक परिस्थिति की कोई परवाह नहीं करते? क्या साक्षरता, स्वास्थ्य और राष्ट्रीय पूर्णता पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता जो व्यवस्थापन और शासन का यन्त्र चलाते हैं। क्या ये बातें एक-मात्र सामाजिक रीतियों पर ही निर्भर हैं जैसा कि मिस मेयो हम लोगों को विश्वास दिलाना चाहती है। इसके विपरीत क्या देश में प्रचलित राजनैतिक अवस्थाओं और लोगों की साक्षरता-द्वारा सामाजिक रीतियाँ भी अधिकांश रूप में निश्चित नहीं की जाती?

ये प्रश्न इस विषय की जड़ तक पहुँचते हैं। क्योंकि हमारी समझ में भारतीय समस्या राजनैतिक एवं आर्थिक समस्या पहले है और सामाजिक समस्या बाद को।

अपने कार्य्य में सहायक होने के लिए मिस मेयो ने पहले तो कुछ ऐसी बातों का होना सोच लिया है जो बिलकुल हैं ही नहीं। दूसरे वह अपनी कल्पना से उन्हें 'अति प्राचीन इतिहास' में भी देखती है जिससे कि वह सर्वथा अनभिज्ञ है। तीसरे वह किसी जाति के सम्पूर्ण जीवन पर, सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पर भी आर्थिक और राजनैतिक दासता के प्रभावों को बिलकुल नहीं देखती।

मिस सेयो के तर्क ऊपर ही ऊपर काम करते हैं। और राजनैतिक समस्या को वह इस प्रकार छोड़ देती है। मिस मेयो की ही भांति स्त्रियों का लक्ष्य करके कदाचित् प्रसिद्ध मनोविज्ञान-वेत्ता प्रोफ़ेसर मस्टरवर्ग ने अमरीका के सहानुभूतियुक्त पर निष्पक्ष अध्ययन में वहाँ की स्त्रियों के सम्बन्ध में लिखा है[१] कि—'अमरीका की स्त्रियां जिन्होंने कदाचित् ही कुछ


  1. दी अमेरिकन्स, पृष्ठ ५८७