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दुखी भारत

"एक बड़ी जन-संख्या को लीजिए जो मुख्यतः देहात में बसी हो, निरक्षर हो और अपनी निरक्षरता को पसन्द करती हो। इस समाज की किसी स्त्री को बिना अध्यापिका नियुक्त किये इसे आरम्भिक शिक्षा देने का प्रयत्न कीजिए। क्योंकि यदि आप किसी स्त्री को अध्यापिका नियुक्त करेंगे तो सर्व-साधारण की आंखों के सामने उपस्थित कर उसके सर्वनाश का बीज बोएँगे। तब क्या आप पूछेंगे कि उस जाति में इतना धीरे धीरे शिक्षा का प्रचार क्यों हो रहा है?

"इस प्रकार के वायुमण्डल में जिन शरीरों और मस्तिष्कों की रचना हुई और पालन-पोषण हुआ उनको लीजिए। तब क्या आप यह प्रश्न कर सकते हैं कि मृत्यु-संख्या इतनी अधिक क्यों है और लोग इतने ग़रीब क्यों हैं?

"भारत के राजसिंहासन पर चाहे ब्रिटिश बैठें, चाहे रूसी, चाहे जापानी। चाहे देशी नरेश सारे देश को आपस में बाँट लें और प्राचीन राजसत्ता को पुनर्जीवित करें। या चाहे जो शासन-प्रणाली वर्तमान है उससे अधिक पूर्ण शासन स्थापित किया जाय पर यदि कोई शक्ति भारतवासियों को स्वाधीनता की ओर जिस गति से वे जा रहे हैं उससे अधिक तेज़ी से लेजा सकती है तो वह उन्हीं की शक्ति हो सकती है। और वह शक्ति उन्हें तब प्राप्त हो सकती है जब वे जो उनके दोष दिखावें उनके दोष ढूँढ़ने में और अपना अपराध दूसरों के सिर मढ़ने में समय नष्ट न करें बल्कि स्वयं अपने शरीर और आत्मा के सुधार करने में पूर्ण निश्चय के साथ लग जायँ।"

मिस मेयो के साथ कोई अन्याय न हो इस विचार से हमने उसके लेखों को ऊपर सविस्तर उद्धृत कर दिया है।

अच्छा, अब इस प्रकार का तर्क करना तो बिल्कुल ठीक प्रतीत होता है कि हम भारतवासियों ने आपस की फूट और मूर्खता से विदेशी शासन को निमंत्रित किया है। इसलिए यदि उस शासन ने हमारी शारीरिक बाढ़ रोक दी है, हमें पुरुषत्वहीन बना दिया है, हमें स्वतन्त्र विचार करने के अयोग्य नहीं रखा, हमारी उन्नति और राष्ट्रीय पूर्णता का मार्ग बन्द कर दिया है तो हमें अपने ही आपको इसके लिए अपराधी ठहराना चाहिए। यदि मिस मेयो का तर्क इस प्रकार का होता तो हम इसके वेग को स्वीकार कर लेते। वास्तव में यह तर्क इतना प्रबल है कि इसी कारण हम इस