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दुखी भारत

को, जिसकी बाइबिल सचित्र सामाजिक पत्रिकाएँ न हों, उस पर हँसी आये बिना नहीं रह सकती। बङ्गाली जाति पर उसने सबसे अधिक घृणा की वर्षा की है और कहती है कि समस्त देशी नरेश बङ्गालियों से इसी प्रकार घृणा करते हैं। परन्तु भारतीय राज्यों में बङ्गाली मन्त्रियों की कमी नहीं है––उदयपुर में भी। इस बात पर वह सन्देह नहीं प्रकट करती कि सम्भवतः बङ्गाल ने या भारतवर्ष में स्वयं अँगरेजी शिक्षा ने 'बाबुओं' या बी॰ ए॰ फेल या बी॰ ए॰ पास लोगों के अतिरिक्त भी कभी कुछ उत्पन्न किया है। वह लिखती है––'फिलीफाइन्स और भारतवर्ष, दोनों जगह किसी प्रकार का सामयिक साहित्य नहीं है या कोई ऐसा साहित्य नहीं है जिसमें सर्वसाधारण की रुचि हो। और इन दोनों देशों में बहुतसी भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें कोई भी साहित्य नहीं है।' कोई भी महत्वपूर्ण भारतीय भाषा ऐसी नहीं है जिसमें यथेष्ट साहित्य न हो। तामिल में मणिकेश्वर और दूसरे शैव भक्तों की सुन्दर कविताएँ हैं, हिन्दी में तुलसीदास की रामायण है जो एक उत्कृष्ट काव्य-ग्रन्थ है और जिसके आधार पर संयुक्त-प्रान्त के गाँवों में प्रतिवर्ष शरद ऋतु की उजली निशा में १५ दिन रामलीला होती है। बँगला में रामायण और महाभारत के ग्रन्थों में, जिनकी लाखों प्रतियाँ प्रतिवर्ष बिकती हैं और रामप्रसाद के भजनों में जिन्हें आप किसी भारतीय सड़क पर सुन सकते हैं, सुन्दर साहित्य भरा पड़ा है। इन सब भाषाओं में ऐसा साहित्य मौजूद है जिसमें सर्वसाधारणों को बड़ा आनन्द आता है।

मिस मेयो ने २५८ वें पृष्ठ पर भारतवर्ष में अँगरेज़ी शासन का संक्षिप्त इतिहास दिया है। यह इतिहास उसने सम्भवतः भोजन के समय की बातचीत से सुनकर लिखा है। वह गम्भीरता के साथ १७८४ ईसवी की घोषणा को उद्धृत करती है कि––'कोई स्थानिक निवासी जाति, वर्ण, धर्म या कुल-भेद के कारण कम्पनी की किसी नौकरी के लिए अयोग्य न माना जायगा।' इस पर वह अपनी सम्मति देती है कि––'यह घोषणा जात-पात में जकड़े, गृह-युद्ध में फँसे, और अत्याचारों से पीड़ित भारत पर बम्ब के समान प्रतीत हुई।' निःसन्देह, यदि यह दूसरी शताब्दी या और समय तक के लिए सचाई के साथ किया गया होता तो भारतीय शासकों पर बम का गोला ही फेंकना होता। यही घोषणा १८३३ और १८५८ ईसवी में फिर की गई। १८२२ और १८२४ ईसवी में मदरास के गवर्नर सर टामस मुनरो ने अत्यन्त दुःख के साथ लिखा था कि अत्यन्त निम्न पदों के ऊपर प्रत्येक विभाग में भारतीयों को कदापि नहीं पहुँचने दिया जाता। और २ मई १८५७ ईसवी को (सिपाही-विद्रोह से ८ दिन पूर्व) इसी परिस्थिति के सम्बन्ध में हेनरी लारेन्स ने क्रोध के साथ लिखा था। मिस मेयो स्वतन्त्र पश्चिमी विचारों के विरुद्ध सिक्खों के विद्रोह को १८४५ ईसवी की