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दुखी भारत

मिस्टर गिबन्स ने इन बातों और घटनाओं को जिस क्रम से उपस्थित किया है वह इतिहास पर अवलम्बित है और उसका विरोध नहीं हो सकता। गत महायुद्ध से युद्धों का अन्त नहीं हो गया। किसी समय में ऐसा दावा अवश्य किया जाता था। योरप अब भी एक ज्वालामुखी के शिखर पर बैठा हुआ है और निकट भविष्य में युद्ध अवश्यम्भावी है। अँगरेज़ों की धन और जनशक्ति का एक भारी साधन होने के कारण योरप और एशिया के सब राष्ट्र भारतवर्ष को सन्देह और अविश्वास की दृष्टि से देखते हैं। पूर्व ने अब योरप की प्रभुता के विरुद्ध विद्रोह खड़ा किया है। सोवियत-रूस योरप के मजदूरों को और एशिया के भिन्न भिन्न राष्ट्रवादियों को इँगलैंड के विरुद्ध करने में दत्तचित्त है। भारतवर्ष में भी आग धधक रही है। ऐसी परिस्थिति में यह कहने के लिए बहुत राजनैतिक पाण्डित्य की आवश्यकता नहीं है कि भारतवर्ष बहुत समय तक बन्धन में नहीं रक्खा जा सकता जैसा कि यह १५० वर्षों से रक्खा हुआ है। ब्रिटिश के हितों के लिए भी यह आवश्यक है कि वह भारतवर्ष के साथ कोई समझौता कर ले, जिससे कि भविष्य में भी उसका और भारत का साथ बना रहे। चीन में आग धधक ही चुकी है। अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र हो गया है। फ़ारस एक पूर्ण राष्ट्र के रूप में अपना सङ्गठन कर रहा है। रूस करीब करीब अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर पहुँच गया है। ऐसी परिस्थिति में ग्रेटब्रिटेन को यह देखना चाहिए कि उसके राजनैतिक भविष्य पर असन्तुष्ट और दुखी भारत का क्या प्रभाव पड़ सकता है। ब्रिटेन के साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्द्वी भारतीय राष्ट्रवादियों के भड़काये जाने में दिलचस्पी ले रहे हैं। आगामी युद्ध में इँगलैंड के हित भारतवर्ष को सुरक्षित न रहने देने के लिए ये एक भी उपाय शेष न रहने देंगे। इँगलैंड को अब संसार में कोई नहीं चाहता। और यद्यपि हम राष्ट्रों की पारस्परिक सन्धियों और समझौतों के सम्बन्ध में बहुत सुनते हैं तथापि वे जिन कागज़ों पर लिखे जाते हैं उनके योग्य भी नहीं हैं। गत २०० वर्षों के इतिहास ने यह दिखला दिया है कि संधियाँ जब जब किसी बड़ी शक्ति की साम्राज्यवादिनी आकांक्षाओं के मार्ग में बाधक बनी हैं तब तब उनके साथ में कागज़ के मामूली टुकड़ों के समान व्यवहार किया जाया है। वास्तव में कहा जाय तो राष्ट्र-संघ का किसी पर कोई प्रभाव नहीं