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संसार का सङ्कट––भारतवर्ष

यह बात अन्यथा नहीं सिद्ध की जा सकती। ब्रिटेन ने योरप तथा एशिया की अन्य शक्तियों के साथ जो युद्ध किये हैं उनमें से अकिधांश का सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से उसके भारत में शासन के साथ था। भारतवर्ष में शासन स्थापित करने के पश्चात् से वह सदा रूस से लड़ता रहा है। एक शताब्दी से ऊपर तक अँगरेज़ राजनीतिज्ञों और समाचार-पत्रों के मस्तिष्क में ज़ार का रूस वैसे ही चढ़ा हुआ था जैसे आज-कल सोवियत का रूस चढ़ा हुआ है। अनेक अनुभवी विद्वानों की यही सम्मति है। उनमें अमरीका के प्रसिद्ध लेखक हरबर्ट आडम्स गिबन्स का नाम लिया जा सकता है। उनकी 'एशिया का नवीन मान-चित्र' नामक पुस्तक इसी निबन्ध से आरम्भ होती है[१]। गिबन्स के अनुसार बीसवीं शताब्दी की भाँति १९ वीं शताब्दी में भी ब्रिटेन की वैदेशिक नीति भारत में उसके साम्राज्य की रक्षा का ध्यान रखकर निर्धारित की जाती थी। अँगरेज़ों की वैदेशिक नीति के भिन्न भिन्न रूपों से यह बात बड़ी अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है। मिस्टर गिवन्स ने इन बातों को अपनी पुस्तक के प्रथम अध्याय में बड़ी खूबी के साथ संक्षेप में लिख दिया है। हम इस अमरीकन लेखक के ही शब्दों में यह कथा पाठकों के सम्मुख उपस्थित करना अधिक पसन्द करते हैं:––

"ग्रेटब्रिटेन की जो वैदेशिक नीति नैपोलियन के युद्धों के समय से लेकर आज तक युद्धों और राजनीति की कूट-चालों को प्रोत्साहित करती रही है उसे कोई तब तक नहीं समझ सकता जब तक वह युद्धों, कूट चालों, सन्धियों, सहयोगों, राज्यापहरणों और संरक्षित राज्यों की सीमा-वृद्धि पर विचार करते समय, भारतवर्ष को निरन्तर अपने सामने न रक्खे।

"ग्रेटब्रिटेन के 'नेपोलियन से मेडीटेरेनियन, मिस्त्र और सीरिया में' युद्ध करने का कारण केवल भारतवर्ष था। दीवाना की कांग्रेस में ग्रेटब्रिटेन ने योरप में कुछ नहीं माँगा। वह अपना पारितोषिक इसी बात में समझता था कि उसकी माल्टा, आफ़ गुड होप, मौरिशश, सिचीलीज़ और लङ्का की जीत स्वीकार कर ली गई थी। १८१५ ईसवी के पश्चात् से ग्रेटब्रिटेन तुर्क-साम्राज्य की अखण्डता का हिमायती बन गया ताकि कोई शक्ति स्थल-मार्ग से भारत


  1. सेनचरी कम्पनी, न्यूयार्क, १९१९।