यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३३
सुधारों की कथा

बहुमत से प्रसद्ध असहयोग का प्रस्ताव पास किया जिसके अनुसार कांग्रेस ने कौंसिलों और सुधारों के बहिष्कार करने का निश्चय किया। यहाँ भी महात्मा गान्धी की व्यक्तिगत रूप से विजय हुई। लोकमान्य तिलक की मृत्यु हो चुकी थी परन्तु कहा जाता है कि मरने से पूर्व उन्होंने अपनी यह इच्छा प्रकट की थी कि कौंसिलों का बहिष्कार न होना चाहिए। देशबन्धुदास, बाबू विपिनचन्द्र पाल, और अन्य दूसरे भारतीय राजनीति में प्रसिद्ध नेता बहिष्कार के विरुद्ध थे। पण्डित मोतीलाल नेहरू महात्मा के साथ थे। प्रस्ताव राजनैतिक मस्तिष्क की अपेक्षा जनता के विचारों का प्रतिबिम्ब प्रतीत हो रहा था।

सुधारों के अनुसार अन्तिम चुनाव नवम्बर १९२० में हुआ। कांग्रेस का कोई सदस्य चुने जाने को नहीं खड़ा हुआ। नर्म दलवाले बड़ी व्यवस्थापिका सभा में और छोटी व्यवस्थापिका सभाओं में खूब अधिक संख्या में पहुँचे। उस समय तक वे ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के प्रियपात्र थे। लार्ड मारले उन्हें एक हिबा दे गये थे। सरकार का अब तक उनमें विश्वास था और उनके नेता भिन्न-भिन्न प्रान्तों में मंत्री और कार्य्यकारिणी सभा के सदस्य बनाये जाते थे। इनमें से एक को भारत सरकार ने अपना 'ला' मेम्बर भी नियुक्त किया था। इस प्रकार १९२१ ईसवी में सुधारों का कार्य्य नरम दलवालों की ओर से आशा और कांग्रेस के राष्ट्रवादियों की ओर से सन्देह की स्थिति में प्रारम्भ हुआ। १९२१ ईसवी में असहयोग अपने शिखर पर था। १९२१ ईसवी के अन्त में यह ४०,००० राष्ट्रवादियों की जेल-यात्रा के साथ, जिनमें उत्तरी भारत के सबसे बड़े नेता भी सम्मिलित थे, सर्वोच्च सीमा पर पहुँचा। मार्च १९२२ ईसवी में स्वयं महात्मा गान्धी भी गिरफ़्तार कर लिये गये। नरम दल के नेता, मंत्री और कार्य्यकारिणी के सदस्य तब भी सरकार के साथ थे। और सरकार असहयोग आन्दोलन का दमन करने के लिए जो उपाय सोचती थी उसका वे साधारणतया समर्थन ही करते थे। असहयोग आन्दोलन क्यों और कैसे आरम्भ हुआ और उसने क्या किया; आदि बातों पर विचार करने का यहाँ स्थान नहीं है। परन्तु इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि देश में इसने ऐसी राजनैतिक जाग्रति उत्पन्न कर दी जैसी पहले कभी नहीं हुई थी और ब्रिटिश के प्रति लोगों में इसने

२८