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सुधारों की कथा

के सम्पूर्ण महत्त्व की रचना सार्वजनिक निर्वाचन की नींव पर की गई है...कठिनाई यह है कि यह महल तो बीच आकाश में लटक रहा है पर जो नींव इसको सम्भालने के लिए बनाई गई है उसका वास्तव में अस्तित्व ही नहीं है।'

सम्पूर्ण अध्याय असम्बद्ध विषयों और विचारों का संग्रह है। अँगरेज़ अफ़सरों की असीम प्रशंसा और हिन्दू राष्ट्रवादियों की निर्दयतापूर्ण निन्दा के अतिरिक्त इसमें और कुछ नहीं है; न कोई क्रम, न परस्पर कोई सम्बन्ध और न कोई स्पष्ट विचार। कथओं और वर्णनों को आपस में मिला दिया गया है। ये सब काल्पनिक हैं पर इन्हीं के आधार पर भयङ्कर और बेहूदी बातों का अनुमान किया गया है। गुप्त मनुष्यों के वार्तालाप दिये गये हैं जिनकी सत्यता की जांच नहीं की जा सकती। पर उनमें अधिकांश ऐसे हैं जो पाठकों को धोखे में डाल सकते हैं। बार बार वह अपने पाठकों से कहती है कि भारतीय राष्ट्रवादी कहते कुछ हैं और उनका तात्पर्य कुछ और ही होता है। २६७ वे पृष्ठ पर वह लिखती हैं कि एक दिन मैंने व्यवस्थापिका सभा के एक विख्यात ब्रिटिश-विरोधी सदस्य से बातें कीं और उससे पूछा कि क्या तुम्हारे साथी सदस्य, सरकार की नीति के विरुद्ध भयङ्कर दोष लगाते हैं, वास्तव में वैसा ही सोचते भी हैं?" उसने जवाब दिया, 'कैसे सोच सकते हैं? व्यवस्थापिका सभा ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जिसका ऐसी बातों पर विश्वास हो।' परन्तु यदि व्यवस्थापिका सभा के मनुष्य वास्तव में इतने बड़े धोखा देनेवाले होते तो वे एक अज्ञात विदेशी यात्री के सम्मुख कोई बात इस प्रकार स्पष्ट रूप से नहीं स्वीकार कर सकते थे। फिर २६६ वें पृष्ठ पर एक ऐसा वक्तव्य है जिसे कोई व्यक्ति, जिसके जरा भी बुद्धि हो, नहीं लिख सकता था। वह लिखती है:––

"सरकार के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों के सम्बन्ध में इन निर्वाचित प्रतिनिधियों की अपेक्षा गाँव का मुखिया [जो दस में नौ निरक्षर होता है] कहीं अधिक समझता है और अनुभव करता है।"

ऐसी परिस्थितियों में मिस मेयो को अकेली छोड़ कर सुधारों की यथासम्भव संक्षिप्त कथा––उनका जन्म और उनकी कारगुज़ारी––दे देना अच्छा