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इकतीसवाँ अध्याय
सुधारों की कथा

मिस मेयो ने १९१९ में भारतीय शासन-पद्धति में किये गये सुधारों के सम्बन्ध में पूरा एक अध्याय लिखा है। उसकी सम्मति यह है कि इन सुधारों के उपस्थित करने में भूल की गई है और १९१९ के पूर्व भारतवर्ष की शासन-व्यवस्था सर्वथा अच्छी थी और उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं थी।

यही उसका साधारण विषय प्रतीत होता है। परन्तु उस अध्याय को पढ़ने के पश्चात् यह बतलाना कठिन हो जाता है कि वह वास्तव में चाहती क्या है? यह अध्याय अनुपयुक्त और अबोधनीय वक्तव्यों से भरा है। उपयुक्त और बोधगम्य बात केवल इतनी ही है कि उसने भारतीय राष्ट्रवादियों के प्रति असीम घृणा प्रकट की है और उन्हें इतना काला, बेहूदा, झूठा, मूर्ख और धृष्ट चित्रित करने की चेष्टा की है जितना कि वह कर सकती है। प्रथम वाक्य में ही हमें बताया गया है कि 'जो शासन-पद्धत्ति भारतवर्ष में क्रमशः अपना काम कर रही है उसकी जड़ें गत शताब्दियों तक फैली हुई हैं और अपनी क्रम-वृद्धि के कारण वे हमें दिखलाई पड़ रही हैं।' इसी अध्याय में ज़रा आगे चलकर वह लिखती है कि 'इस आयोजना के वर्तमान स्वरूप में बलूत के वृक्ष के समान मंद गति से बढ़ने की शक्ति नहीं है।' इस आयोजन की उसने निन्दा की है कि 'यह उस पौधे के समान है जो अपने घर से निकाल कर अपरिचित देश में उदारता और जोश की गर्मी से अपनी शक्ति के विरुद्ध बढ़ाया जाय।'

इसके पश्चात् २६८ वें पृष्ठ पर 'सुधार क़ानूनों की समालोचना करने का कोई विचार न रखते हुए' भी वह समालोचना करने का साहस करती है और लिखती है कि 'मुख्य कठिनाई वस्तुओं की जड़ में इतनी गहराई में है कि किसी प्रकार की शत्रुता भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकती। सुधारों