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दुखी भारत

हिन्दू-सैनिकों की सहायता के सफलता नहीं मिल सकती। हिन्दुओं को उत्तेजित करने के लिए उन्होंने ब्राह्मणों को यह विश्वास दिला देना उचित समझा कि उनका धर्म सङ्कट में है। इसलिए मुसलमानों ने यह समाचार फैला दिया कि ब्रिटिश-सरकार हिन्दू-धर्म की जड़ काट रही है। वह धोखे ले सब हिन्दुओं को ईसाई बना लेना चाहती है। ब्राह्मणों ने भी इसी सुर में सुर मिलाया।......चरित्र की दृढ़ता, शिक्षा और बुद्धि में मुसलमान हिन्दुओं से बहुत बढ़े चढ़े हैं। तुलनात्मक दृष्टि से कहा जाय तो हिन्दू उनके हाथ में गिरे बच्चे हैं। इसके अतिरिक्त कार्य में अधिक दक्ष होने के कारण प्रायः सार्वजनिक नौकरियों में वे अधिक लिये गये हैं। इससे उन्हें सरकारी नीति को समझने का भी मौका मिल गया है और उनकी बातें गम्भीर और महत्त्वपूर्ण समझी जाने लगी हैं।......इस बलबे (क्रान्ति) की सुसलमानों ने एक-मान्न अपनी महत्ता के लिए आयोजना की और उन्हीं ने इसका संगठन किया। बङ्गाल फौज के अबोध हिन्दू सिपाही उनके हाथों में कटपुतलो-मात्र थे।"

एक और कारण उपस्थित करके यह लेखक बतलाता है कि मुसलमानों को ईसाई बनाना असम्भव है[१]। जरा उसको भी पढ़ लीजिए:––

"ईसाई-धर्म-प्रचारक किसी मुसलमान को कदाचित् ही अपना सिद्धान्त समझा सकता है। उसका ईसाई होना ही उसकी सफलता में बाधक जाता है। प्रायः मुसलमान ईसाइयों से वादविवाद करने से बचते रहते हैं। और यदि कान नहीं बन्द कर लेते तो उनके तर्कों को बड़ी अधीरता के साथ सुनते हैं। हिन्दू उतने रूखे और हठी नहीं होते। इसलिए वे ईसाई-धर्म-प्रचारकों के उपदेशों से प्रायः प्रभावित हो जाते हैं।

३८२१ ईसवी में ही एक ब्रिटिश अफसर ने 'एशियाटिक जर्नल में 'कर्नाटिकस' नाम से लिखा था कि[२]––

'फूट उत्पन्न करके राज्य करना' हमारे भारतीय शासन का मूल मन्त्र होना चाहिए। राजनीति, सिविल, मिलीटरी, सर्वत्र इसी नीति का प्रसार होना चाहिए।


  1. उसी पुस्तक से, पृष्ठ २६।
  2. वस्तु द्वारा उनकी 'भारत में ईसाइयों की बढ़ती' नामक पुस्तक में उद्धत‌। पृष्ठ ७४-५