१८८० और १८९७ के शाही कमीशनों के सामने गवाही देते हुए इसका वर्णन किया था। श्रीयुत ए॰ के॰ कोनेल ने इस प्रश्न के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा था:*[१]-
"पूँजी के वास्तविक व्यय का हिसाब नीचे लिखे अनुसार है। जिन रेलों के लिए गारंटी दी गई थी उन पर १८८०-८१ तक में ९,६७,९४,२२६ पौंड व्यय किया गया। ४,६९,१८,१७७ पौंड इँगलैंड में व्यय किया गया था और ४,९८,७६,०४९ पौंड भारतवर्ष में। ब्याज हुआ था लगभग २,८०,००,००० पौंड के जो क़रीब क़रीब सब इंग्लेंड को दे दिया गया था।......... इस लेन-देन में निस्सन्देह ८०,००,००० पौंड का घाटा हुआ था। यहां तक हमने देखा कि इस विदेशी पूँजी के लगाने के फल-स्वरूप 'जितना धन ब्याज से प्राप्त हो सकता था उससे अधिक धन व्यय हुआ' परन्तु यदि गारंटी-पद्धति के अनुसार रेलों का निर्माण न होता तो उस अवस्था में जितना धन व्यय होता उससे यह कम ही हुआ।
"स्टेट रेलवे के लिए जो पूजी ली गई थी उसमें २,४०,००,००० यौंड भारत ने दिये थे और ७५,००,००० पौंड इंग्लैंड ने दिये थे। परन्तु २ और ३ लाख के बीच में जो ब्याज पूरे धन में जुड़ना चाहिए वह मी इंग्लैंड चला जाता था।"
मिस्टर कोनेल ने इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि रेलों से भारतवर्ष को लाभ हुआ या नहीं? उनके निष्कर्ष उन्हीं के शब्दों में नीचे दिये जाते हैं†[२]:-
संक्षेप में, रेलों और व्यापार-स्वातंत्र्य का सम्मिलित परिणाम इस प्रकार कहा जा सकता है-पहले भारत अपने लिए वस्त्र तैयार कर लेता था, अब इंग्लेंड उसे वस्त्र भेजता है। इससे भारतीय बुनकरों की आय का एक बड़ा भारी साधन जाता रहा। देश को केवल उतना ही लाभ हुआ जो विलायती और देशी वस्तुओं के मूल्य में अन्तर है। परन्तु इन वस्तुओं को खरीदने के लिए भारत को अपने भोजन का एक बड़ा भाग विदेश को भेज देना पड़ता है। जो लोग यह भोजन बेचते हैं उन्हें पहले की अपेक्षा अधिक धन प्राप्त होता है। इस प्रकार कुछ लोगों को वस सस्ता होने और गल्ला महँगा होने