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दुखी भारत

यदि समुद्र के मार्ग से शत्रुओं का आक्रमण हो ही जाय तो उनका सामना करने के लिए भारतवर्ष का किनारा ही यथेष्ट है; क्योंकि वह घाटों (पर्वतों) और मरुस्थलों से इतना सुरक्षित बना दिया गया है कि ऐसे आक्रमणों से उसे किसी विशेष हानि का भय करने की आवश्यकता नहीं है। रही उसके सामुद्रिक व्यापार की बात। वह बड़ा चढ़ा अवश्य है, पर वह पूर्णरूप से भारतवर्ष के लाभ के लिए नहीं है। इस व्यापार को जारी रखना भारत की अपेक्षा उसके ग्राहक ही अधिक चाहते हैं। इसलिए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि भारतीय सेना का बढ़ा हुआ व्यय उसके बजट में सेना के व्यय की कमी की पूर्ति करता है।"

इसमें क्या सन्देह कि मिस मेयो को इन बातों पर विचार करने का अवकाश नहीं था और न वह विचार ही करना चाहती थी। परन्तु यह स्मरण रखना उचित है कि गत महायुद्ध में भारतवर्ष ने भिन्न भिन्न युद्ध-स्थलों को ५३,३८,६२० से कम मनुष्य नहीं भेजे[१] और प्रकटरूप से उसने जो आर्थिक सहायता की वह स्वयं सरकारी मत के अनुसार १४६.२ लाख पौंड थी। अप्रकट रूप से उसने धन और सामग्री से जो सहायता की उसका तो कुछ कहना ही नहीं। इँगलैंड ने भारतवर्ष के लिए ऐसा कौन सा त्याग किया है जिसकी इन अङ्कों के साथ तुलना की जा सके? ब्रिटेन भारतवर्ष में नहीं एक अँगरेज़ सिपाही रखता है वहां दो भारतीय सिपाही रक्खे जा सकते हैं! अँगरेज़ सिपाही पर अधिक व्यय पड़ता है इसलिए इससे भी अपव्यय की वृद्धि होती है।

भारतीय सेना में योरपियन लोग न रक्खे जायँ! इस बात पर भारतीय राजनीतिज्ञ, राष्ट्रीय और लिबरल दोनों, बहुत समय से जोर देते आ रहे हैं। इस सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण बातों पर विचार करने के लिए कुछ वर्ष हुए सरकार ने एक कमेटी नियुक्त की थी। उसके सभापति एक प्रसिद्ध ब्रिटिश सैनिक सर एण्डू, स्कीन थे। इस कमेटी ने, जिसे सरकार ने नियुक्त किया था, जिसमें सरकार के ही मनोनीत सदस्य थे और एक प्रसिद्ध ब्रिटिश सैनिक


  1. 'महायुद्ध में भारतवर्ष का भाग'। ब्रिटिश-सरकार की आज्ञा से प्रकाशित १९२३ ईसवी, पृष्ठ ९८, १६०।