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बुराइयों की जड़––दरिद्रता

भरपेट भोजन पा जाना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार चिकाकोलो डिवीज़न में एक गाँव की जांच करने पर उन्हें विदित हुआ कि उस गाँव के एक साधारण ज़मीन्दार की, जिसके पास सूखी और तर दोनों प्रकार की जमीन थी, वार्षिक आय १२९ रुपये ८ आने थी और व्यय, चावल, तेल वस्त्र आदि का मूल्य मिलाकर, १८१ रुपये ८ आने था। इस प्रकार प्रतिवर्ष उसे ५२ रुपये का घाटा होता था। १९०७ ईसवी में उस कुटुम्ब के मालिक ने व्याह करने और मुकदमा लड़ने के लिए ३८० रुपये ऋण लिये। इस ऋण को उसने १९१३ ईसवी में चावल बेच कर और मोटे अन्न पर तथा चावल के कणों पर गुज़ारा करके चुका दिया। उस जमींदार के कथनानुसार उसके कुटुम्ब को केवल जनवरी से मार्च तक पेट भर भोजन मिला। एक दूसरे कुटुम्ब को अपने जमींदारी के गाँव से ३१६ रुपये की आय हुई। और व्यय हुए ३२१ रुपये ६ आने। इसके अतिरिक्त उस कुटुम्ब पर पहले का ऋण भी था। एक दूसरे कुटुम्ब की जमींदारी से उसे ७७८ रुपये की आय हुई और व्यय हुए ६९८ रुपये ४ आने। इस प्रकार उसे ६८ रूपये की बचत हुई। इसका कारण यह था कि उस कुटुम्ब में अत्यन्त किफायत के साथ व्यय किया जाता था। यह लाभ नहीं था बल्कि वह मजदूरी थी जो कुटुम्ब के लोगों ने खेत पर स्वयं परिश्रम करके १४ रुपये प्रतिमनुष्य प्रतिवर्ष के हिसाब से कमाये थे।"

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सरकार-द्वारा किये गये अनुमान के अनुसार कुछ समय पूर्व तक भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य ३० रुपये था। भारत के अर्थसचिव लार्ड क्रोमर ने १८८२ ईसवी में भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत २७ रुपये प्रतिमनुष्य बतलाया था। लार्ड कर्जन, भूतपूर्व वायसराय, ने ८५ प्रतिशत कृषकों की वार्षिक आय का औसत ३० रुपये प्रतिमनुष्य अनुमान किया था। १९०१ ईसवी में बजट पर व्याख्यान देते हुए लाई जार्ज हैमिल्टन ने, जो उस समय भारत-मंत्री थे, वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य ३० रुपये (२ पौंड) बतलाया था। श्रीयुत विलियम डिग्बी, सी॰ आई॰ ई॰ ने, लोगों की आर्थिक और प्रौद्योगिक अवस्था का बड़ी सावधानी के साथ अध्ययन करके आवश्यकता से कहीं अधिक प्रमाण इस बात के दिये हैं कि भारतवासियों की वार्षिक आय का औसत प्रतिमनुष्य १७ रुपये ८ आने (करीब ६ डालर) से अधिक नहीं है। यदि हम रुपये के मूल्य पर विचार करें जो अमरीका के सिक्के में करीब ३३ सेंट होता है तो हमें भारतवर्ष की