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बुराइयों की जड़––दरिद्रता

मकान का कष्ट या दोनों रहते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ब्रिटिश भारत में १० करोड़ मनुष्य दरिद्रता की चर्मसीमा पर पहुँचे हुए हैं।"

पञ्जाब की गणना भारतवर्ष के सम्पन्न प्रान्तों में की जानी है। भूत-पूर्व फाइनैंसियल कमिश्नर और पंजाब कमीशन के सदस्य मिस्टर आरवर्न 'शान्ति और युद्ध में पन्जाब[१] नामक पुस्तक में उस प्रान्त के कृषकों के सम्बन्ध में लिखते हैं:––

"यह ध्यान देने की बात है कि पञ्जब का समन्न कर––१०,२०० पौंड––भूमि-कर से लेकर छोटे से छोटे टिकट के मूल्य तक, प्रायः किसानों की ही जेब से आता है। पढ़े-लिखे लोग और व्यापारी लोग, जिन्हें इस नवीन शासन-पद्धत्ति ने उन दीन कृषकों को हानि पहुँचाकर लाभ पहुँचाया है, प्रायः किसी प्रकार का कर बिना दिये ही निकल जाते हैं।"

पुनश्च[२]:--

"सिपाही-विद्रोह के पश्चात् कुल मिलाकर ७ वर्ष अकाल पड़ा; अर्थात्, १८६०-६१, १८७६-७८, १८९६-९७ और १८९९-१९०१ ईसवी में अकाल पड़े। इसके अतिरिक्त जिन स्थानों में लोग वर्षा पर पूर्णरूप से नहीं अवलम्बित रहते वहाँ भी वर्षा की कमी से फसल में कई बार कमी हुई। आरम्भ के अकालों में कुल चार वर्ष पानी के महसूल और सिंचाई की भूमि-कर से पृथक भूमि-कर में कठिनता से २ प्रतिशत की कमी की गई थी और जो कर पश्चात् वसूल कर लेने की आशा से छोड़ा गया था वह तो बहुत ही कम था। १८९६ ईसवी के पश्चात् से, कृषकों की दरिद्रता सरकारी जांच के अनुसार सिद्ध हो जान पर, सरकार लगान छोड़ने या घटाने में कुछ कम कंजूसी से काम लेने लगी।

अभाग्य से कृषकों को जो सहायता देना सरकार स्वीकार करती है वह देर से पहुँचती है। इससे जिन्हें इसकी अत्यन्त आवश्यकता होती है––अर्थात् अत्यन्त निर्धन खुद काश्त करनेवाले किसान––वे इससे वञ्चित रह जाते हैं। और इससे केवल उन्हीं धनिकों को लाभ होता है जो किसानों की भूमि गिरवी रख लेते हैं या ख़रीद लेते हैं।......


  1. पृष्ठ १७५।
  2. उसी पुस्तक से, पृष्ठ २४३-३।