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दुखी भारत


वायसराय की कौंसिल के पूर्व के एक सदस्य सर विलियम हंटर ने १८७५ ईसवी में व्याख्यान देते हुए कहा था:—

"सरकार की मालगुज़ारी किसानों के पास इतना भोजन नहीं रहने देती कि वे वर्ष के अन्त तक अपना और अपने कुटुम्ब का पेट भर सकें।

इलाहाबाद के अर्द्ध-सरकारी पत्र पायोनियर ने १८७७ ईसवी में एक लेख में लिखा था:—

"बन्दोबस्त की कर-वृद्धि से त्रसित दक्षिण की प्रजा को ३३ वर्ष के लिए ब्रिटिश के कुशासन को फिर स्वीकार करना पड़ा।.........इस सम्बन्ध में बार बार शिकायतें की गई हैं। और कृषकों की दुःख-गाथा से सरकारी दफ़्तरों की आलमारियां भरी कराह रही हैं। यदि किसी को इन शब्दों के सत्य होने में सन्देह हो तो वह नं॰ ए॰ की सरकारी फाइलें (बम्बई-प्रान्त के कृषकों के सरकारी ऋण-सम्बन्धी काग़जात) देख सकता है। ऐसे घृणित अपराध किसी सभ्य सरकार के विरुद्ध कभी नहीं लगाये गये।"

श्रीयुत विल्फ्रेड स्कैवेन ब्लन्ट, अपनी 'रिपन के शासन में भारत' नामक पुस्तक में पृष्ठ २३६-२३८ पर, लिखते हैं:—

"कोई भी व्यक्ति जो पूर्व की यात्रा से परिचित है बिना यह सोचे नहीं रह सकता कि भारतवर्ष के कृषक कितने दरिद्र हैं। किसी भी बड़ी रेलवे लाइन से, जो देश को दो भागों में विभाजित करती हो यात्रा करने से आपको यह बात जानने के लिए अपना डिब्बा छोड़ कर अन्यन्त्र नहीं जाना पड़ेगा।.....प्रत्येक ग्राम में, जहाँ मैं गया, मैंने, अधिक कर वृद्धि की, कर-वृद्धि में असमानता की, जङ्गल के क़ानूनों की, काम करनेवाले पशुओं की कमी की, और नमक के मूल्य के कारण उनकी अवनति की, और सूदख़ोरों के ऋण में प्रत्येक के ग्रस्त होने की, शिकायतें सुनी....."

इसके पूर्व ये ही लेखक अपनी पुस्तक के २३२ पृष्ठ पर लिखते हैं।

"भारतवर्ष में अकाल और भी भयङ्कर रूप से तथा जल्दी जल्दी पड़ने लगे हैं। गांव की जनता पर और भी अधिक निराशाजनक ऋण लद गया