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बुराइयों की जड़—दरिद्रता

आरम्भ में भारतीय कृषकों के सम्बन्ध में कहा था कि—ये जी नहीं रहे हैं, केवल जीवधारियों में उनकी गिनती है[१]।'

सर विलियम हंटर ने, जो एक अत्यन्त निष्पक्ष लेखक और भारतवर्ष के प्रसिद्ध इतिहासकार हैं तथा जो भारतीय जन-संख्या आदि की गणना के कई वर्ष अध्यक्ष रह चुके हैं, प्रकट रूप से यह कहा था कि भारतवर्ष के ४,००,००,००० निवासी पेट भर भोजन कभी नहीं पाते।

श्रीयुत जे॰ सी॰ काटन लिखते हैं[२]:—

"यदि ब्रिटिश राज्य की क्षत्र-छाया में भारत की जनसंख्या में कुछ वृद्धि हुई है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इससे लोगों की साधारण दशा भी कुछ सुधरी हैं। इसका उपाय दो में से केवल एक ही है—या तो निम्न श्रेणी के लोगों की रहन-सहन में विशेषरूप से उन्नति की व्यवस्था की जाय और या फिर लोगों को यथेष्ट संख्या में खेती के काम से छुड़ा कर किसी अन्य व्यवसाय में लगाया जाय।.......

"इन दो में से एक बात भी नहीं की गई। इस विषय के सभी धुरन्धर आचार्य एक-स्वर से कहते हैं कि ब्रिटिश शासन में निन्न श्रेणी के लोगों की दशा और भी अधिक शोचनीय हो गई है।"

भारत-सरकार के कृषि-विभाग के मंत्री श्रीयुत ए॰ ओ॰ ह्यूम ने १८८० ईसवी में लिखा था—'विशेष रूप से उत्तम फसल हुई तब तो गनीमत है। नहीं तो बहुत से लोग साल में कई महीने आधा पेट भोजन करके दिन काटते हैं और उनके कुटुम्ब के लोगों को भी इसी प्रकार रहना पड़ता है।

सर आकलेंड कालविन, जो पहले अर्थ-विभाग के मंत्री रह चुके थे, भारतवर्ष की कर देनेवाली जनता का वर्णन करते हैं कि उनकी आय से


  1. हैपी इंडिया, पृष्ठ १८२।
  2. 'उपनिवेश और रक्षित राज्य' पृष्ठ ६८ (१८८३) आगे के उद्धरण देने के लिए मैंने अपनी पुस्तक 'इँगलैंड पर भारतवर्ष का ऋण'—की सामग्री का उपयोग किया है।