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दुखी भारत

उसके सोने के कमरे के बाहर एक मिट्टी का चबूतरा होता है। उसी को उसकी आराम कुर्सी समझिए। पहनने के लिए उसके पास केवल एक धोती रहती है। जब वह उस धोती को धोता है तब पहनने के लिए दूसरी धोती नहीं होती। वह न तो तम्बाकू पीता है, न शराब; और न अखबार पढ़ता है। वह किसी उत्सव में नहीं भाग लेता। उसका धर्म उसे सहनशीलता और सन्तोष की शिक्षा देता है। इसलिए वह सन्तोषी जीवन तब तक व्यतीत करता रहता है जब तक दुर्भिक्ष उसे पीठ के बल गिरा नहीं देता।"

भारतीय जनता की दरिद्रता के इतने अधिक प्रमाण मिलते हैं कि मिस मेयो के समान विशेष तार्किक व्यक्ति ही इसकी अवहेलना कर सकते हैं। हाल ही में 'दी लास्ट डोमीनियन' नाम की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी उससे भी वैसी ही सनसनी फैल गई थी जैसी मदर इंडिया से। उसे भारतीय सिविल सर्विस के एक भूतपूर्व सदस्य ने 'अल॰ कार्थिल' नाम से लिखा था।

अल॰ कार्थिल ने भारतीय गाँवों का जो वर्णन किया है वह हमारे विषय के इतना अनुरूप है कि उसे हम यहाँ बिना उद्धृत किये नहीं रह सकते[१]

"सम्पूर्ण भारत गाँवों में विभक्त है। ये गाँव सैकड़ों और हज़ारों हैं। चारों तरफ़ मिट्टी के समान रूप से बने झोपड़ों का समूह एक या दो मन्दिर, कुछ पुराने वृक्ष, एक कुआँ और बीच में प्राणस्वरूप थोड़ी सी खुली भूमि; बस यही गाँव है। इसके चारों तरफ़ खेती के योग्य भूमि और गाँव का कूड़ा पड़ा रहता है। यहीं किसान जन्म लेता है और मरता है। वास्तविक भारतीय राष्ट्र––वह परिश्रमी और सन्तोषी राष्ट्र जिसकी कमाई से कर अदा होता है, जिसके रक्त-सिञ्चन से साम्राज्य का निर्माण हुआ है, और उसकी रक्षा भी हो रही है––यही है।"

मिस्टर अरनाल्ड लप्टन ने, जिनकी हैपी इंडिया (सुखी भारत) नामक पुस्तक का हम उल्लेख कर चुके हैं, 'भारत के एक बड़े प्रान्त के एक अनुभवी गवर्नर और कुलीन अँगरेज़' की सम्मति प्रकाशित की है जिसने १९२२ के


  1. दी लास्ट डोमीनियन, ब्लैकउड, लन्दन १९२४ पृष्ठ ३०५-६।