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दुखी भारत

१८६० ईसवी से भारतवर्ष पर लिया गया यह ऋण १० करोड़ पौंड हो गया। इसके पश्चात् यह ऋण बड़ी तेजी के साथ बढ़ा है। १९१३-१४ में भारत सरकार पर कुल ३०,७३,९१,१२१ पौंड का ऋण था। यह तर्क कि यह समस्त ऋण व्यापारिक लेन-देन है और इससे भारतवर्ष को उत्पादक कार्यों के रूप में लाभ पहुँचा है, भारतवर्ष की दशा देखते हुए, किसी प्रकार सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह बड़े दुःख की बात है कि जब प्रसिद्ध अँगरेज़ व्यक्ति 'धन के बहिर्गमन' के प्रश्न पर विचार करने बैठते हैं तब वे प्रश्न के इस पहलू की अवहेलना कर देते हैं और सदैव वही बेसुरा राग अलापते हैं कि भारतवर्ष इंगलैंड को जो व्याज देता है वह उसके उत्पादक कामों में लगी पूँजी का व्याज है जिसके लिए भारतवर्ष को इँगलैंड से नाना प्रकार की वस्तुओं के रूप में उचित बदला मिल चुका है। इस ऋण के उत्पादनशील होने में क्या सन्देह! इम्पीरियल गज़ेटियर यह लँगड़ा तर्क उपस्थित करता है कि गृह-व्यय के रूप में इँगलैंड भारतवर्ष से जो १,७२,५०,००० पौंड वार्षिक होता है उसमें लगभग १,१०,००,००० पौंड 'उस पूँजी का व्याज तथा उन वस्तुओं का मूल्य होता है जो भारतवर्ष को इँगलैंड से प्राप्त हुई थीं।' (यह किस वर्ष का लेखा है, यह नहीं बतलाया गया।) कुल रक़म के निकास के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न आचार्यों के भिन्न भिन्न मत हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक का विकास मिस्टर डिग्बी ने ६ अरब ८ करोड़ पौंड अनुमान किया था[१]। इसमें गत २७ वर्षों के अङ्क भी सम्मिलित होने चाहिए।

१९०६ ईसवी में मिस्टर हिंडमैन ने इसे ४ करोड़ पौंड वार्षिक अनुमान किया था। मिस्टर ए॰ जी॰ विलसन ने ३ करोड ५० लाख पौंड प्रतिवर्ष बतलाया था[२]। सरकार के पक्षसमर्थक सर थ्योडर मोरिसन ने इसे एक 'ठोस निकास' कहा था और इसे २ करोड १० लाख पौंड वार्षिक बतलाया था। इन अङ्कों को रुपयों में परिवर्तित कीजिए तब ये और भी भयङ्कर प्रतीत होंगे।


  1. 'उन्नत-शील ब्रिटिश भारत' पृष्ठ २३०।
  2. "गिरवी साम्राज्य" ए॰ जी॰ विलसन-लिखित, लंदन (१९११) पृष्ठ ६४-६५