यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४०
दुखी भारत

करोड ५० लाख पौंड तक पहुँचा दिया। तब १८५७ का बलवा हुआ और भारत के इस सार्वजनिक ऋण में १ करोड़ मुहरों की और वृद्धि हुई। ३० अप्रेल १८५८ में यह ऋण बढ़कर ६,९५,००,००० पौंड हो गया।

बलवे को दबाने में जो व्यय हुआ उसके सम्बन्ध में अँगरेजों की निम्नलिखित सम्मतियाँ पढ़ने लायक हैं:––

एक पक्षपात-रहित इतिहासकार[१] का कथन है कि 'यदि संसार में कभी कोई न्याय-युक्त विद्रोह हुआ है तो वह कारतूसों पर गाय और सुअर की चर्बी लगाने की घृणोत्पादक नीति के विरुद्ध भारतवर्ष के हिन्दू और मुसलमानों का सिपाही-विद्रोह था। यह भयङ्कर भूल हुई ब्रिटिश शासको से और फल भुगतना पड़ा भारतवर्ष को। इसके पहले भारतवर्ष की फौज चीन और अफ़गानिस्तान में युद्ध करने के लिए भेजी गई थी; और ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारतीय सेना-द्वारा भारत की सीमा के बाहर की गई सेवाओं लिए कुछ नहीं दिया गया था। परन्तु जब वलका दबाने के लिए ब्रिटिश-सेना भारतवर्ष को भेजी गई तब इँगलैंड ने उसका व्यय बड़ी कड़ाई के साथ वसूल कर लिया।'

"औपनिवेशिक कार्यालय का सम्पूर्ण व्यय या दूसरे शब्दों में भारतवर्ष को छोड़कर शेष समस्त उपनिवेशों और रक्षित राज्यों के गृह-शासन तथा स्थल और जल-सेना का व्यय ग्रेट ब्रिटेन के संयुक्त राज्य के कोष से दिया जाता है। यह सोचना स्वाभाविक ही है कि भारतवर्ष का भी इसी प्रकार का व्यय इँगलैंड को संभालना चाहिए। परन्तु होता क्या है? हमारे भारतीय साम्राज्य की सैनिक-रक्षा के लिए ब्रिटेन के कोष से कभी एक शिलिंग भी नहीं निकला।

"कितने आश्चर्य की बात है कि जो राष्ट्र अपने उपनिवेशों और विदेशी राज्यों को, उनकी आवश्यकता के समय में, बड़ी उदारता के साथ आर्थिक सहायता प्रदान करता है वही स्वयं अपने विशाल भारतीय साम्राज्य को उसके असीम आर्थिक कष्ट के समय में भी विचित्र और अचिन्त्य कन्जूसी के साथ सहायता देना अस्वीकार कर दे।

"सबसे निकृष्ट बात अभी कहने को बाक़ी ही है। जय भारतवर्ष को विशेष सेना भेजी जाती है, जैसा कि गत अशान्ति के समय में हुआ, तब उस


  1. लेकी, 'जीवन का मानचित्र' आर॰ सी॰ दत्त द्वारा उद्धत।