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दुखी भारत

अवस्था में मनुष्यता के विपरीत, साधारण-बुद्धि के विपरीत, और अर्थशास्त्र के सर्वमान्य सिद्धान्तों के विपरीत पाया जायगा।"

पुनश्च:––

"यदि भारतवर्ष इस निर्दयी राज्यदण्ड के बोझ से छुटकारा पा जाय और वहाँ के कर से जो आय हो वह वहीं व्यय की जाय तो वहीं का राज्य-कर शीघ्र ही उस अवस्था में पहुँच जाय जिसकी हमें वर्तमान समय में कोई आशा नहीं है।"

दत्त महाशय ने अपनी 'विक्टोरिया-कालीन भारतवर्ष' नामक पुस्तक के १२६ वें पृष्ठ पर कम्पनी के एक प्रसिद्ध सञ्चालक कर्नेल साइक्स की सम्मति उद्धत की है कि 'भारतवर्ष की जो सम्पत्ति प्रतिवर्ष विलायत चली जाती है वह ३,३०,००,००० पौंड से लेकर ३,७०,००,००० पौंड तक है। इस सञ्चालक का यह भी कहना है कि 'यह राज्य-दण्ड भारत तभी सह सकता है जब वह विदेशों को अधिक माल भेजे पर मँगावे कम।'

ईस्ट इंडियन कम्पनी के सभापति हेनरी सेंट जोन टकर ने कहा था‌। (दत्त द्वारा उद्धृत) कि भारतवर्ष की सम्पत्ति का यह बहिर्गमन बढ़ता ही जा रहा है क्योंकि हमारा गृह-व्यय लगातार बढ़ रहा है।' यह बात आवश्यकता से अधिक सत्य प्रमाणित हुई है।

इसी प्रकार पार्लियामेंट की १८५३ की रिपोर्ट में ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक और सौदागर का मत उद्धृत किया गया है। उसने कहा था:––

"साधारण रूप से मैं यह कह सकता हूँ कि १८४७ ईसवी तक हम भारतवर्ष के हाथ ६०,००,००० पौंड का माल बेचते रहे हैं और उससे १५,००,००० पौंड का माल खरीदते रहे हैं। इसमें जो अन्तर है उसकी पूर्ति उस धन से होती रही है जो कम्पनी को भारतवर्ष से कर-स्वरूप मिलता था। वह धन लगभग ४०,००,००० पौंड था[१]


  1. प्रथम विवरण, १८५३ ईसवी।