यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३४
भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

बजाय इँगलैंड में व्यय की जाती है। और इन बचत की रक़मों के अतिरिक्त वह योरपियन व्यापारियों की उस सम्पत्ति से भी लाभ उठाता है जो भारतवर्ष में अर्जित की जाती है पर सबकी सब इँगलैंड भेज दी जाती है[१]।"

नीचे हाउस आफ़ कामन्स की कमेटियों के विवरण से कुछ उद्धरण दिये जाते हैं (भाग ५, १७८१-८२, १८०४ में मुद्रित) मिस्टर फिलिप फ्रान्सिस जो बङ्गाल की कौंसिल के कभी सदस्य रह चुके थे, देशी राज्य और ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज्य की तुलना करते लिखते हैं:––

"किसी अँगरेज़ को यह सोचकर दुःख होना चाहिए कि जब से इस देश की दीवानी कम्पनी के हाथ में आई है तब से यहाँ के निवासियों की दशा पूर्व की अपेक्षा और भी शोचनीय हो गई है। मैं यह कह सकता हूँ कि इस बात के सत्य होने में जरा भी सन्देह नहीं। मेरी सममा में इसके कारण इस प्रकार हैं––कम्पनी का व्यापार में पूँजी लगाने का डङ्ग; विदेशों में भारतीय माल की बिक्री से जो बड़ी वार्षिक आय थी उसका बन्द हो जाना और उसके स्थान पर विदेशी माल खरीदने में देश का रुपया लगना; उगाही की कड़ाई; प्रत्येक पदाधिकारी का बिना परिणाम सोचे प्रशंसा प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने शासन-काल में कर बढ़ा देना; उगाही की भूलें विशेष कर 'बामिलों का नौकर रखना। यही मुझे इस देश के, जो अत्यन्त कठोर और स्वेच्छाचारी राजाओं के शासन काल में भी फलता फूलता रहा, विनाश की और ले जाने के कारण प्रतीत होते हैं, और उस अवस्था में जब कि इसके शासन-प्रबन्ध में अँगरेज़ों का वास्तव में बहुत बड़ा भाग है!"

मिस्टर डिग्बी कहते हैं[२] कि इसके दस वर्ष बाद इंडिया हाउस के चार्लस ग्रेट ने, जो भारत में ब्रिटिश शासन का सबसे बड़ा प्रशंसक था––साथ ही ब्रिटिश भारत के साहित्य में भारतवासियों का सबसे बडा निन्दक भी था, विवश होकर यह स्वीकार किया था कि––'हम उनकी वार्षिक आय का एक बड़ा भाग ग्रेट ब्रिटेन के काम में ले आते हैं।'


  1. पार्लर के पर्चे, १८५३ (४४५-११) पृष्ठ ५८०
  2. 'उन्नतशील ब्रिटिश भारत', पृष्ठ २१४।