यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२९
भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

"अन्य समस्त देशों में स्वाभाविक नियम के अनुसार व्यापार से कर की उत्पत्ति होती है। यहाँ उस नियम का धूर्तता के साथ विपरीत प्रयोग हो रहा है। और जलमार्ग से होनेवाले समस्त विदेशी व्यापार अँगरेज़ों के, फ्रांसीसियों के, डचों के और ढैनिशों के कर की आय से ही चलाये जा रहे हैं। ये व्यापार देश से बाहर किये जाते हैं और इससे देश की जो भारी क्षति होती है उसकी पूर्ति का कोई उपाय नहीं किया जाता!"

ग्रह इस कथा का एक भाग है।

धन का बहिर्गमन

अँगरेज़ लेखकों में इस प्रश्न पर घोर मत्तभेद था और है कि क्या भारतवर्ष इँगलैंड को कर-स्वरूप कुछ देता है अथवा या उसने कभी कुछ दिया है? एक दल इस बात को स्वीकार करता है कि भारतवर्ष एक बहुत बड़ा कर देता रहा है और अब भी दे रहा है। जब से भारतवर्ष के साथ ब्रिटेन का सम्बन्ध स्थापित हुआ है तब से भारतवर्ष की सम्पत्ति का इँगलैंड के लिए एक क्रमबद्ध निकास होता रहा है। १८५८ ई॰ के पश्चात् से भारतवर्ष के सीधा इँगलैंड के ताज के शासन में आ जाने से वह निकाय बन्द नहीं हुआ प्रत्युत और भी बढ़ गया है। अपनी सम्पत्ति के इस बहिर्गमन के कारण भारतवर्ष इतना दरिद्र हो गया है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। दूसरे दल का यह मत है कि भारतवर्ष ने इँगलैंड को कभी कोई कर नहीं दिया। इँगलैंड के लिए भारतवर्ष की सम्पत्ति का बिल्कुल निकास नहीं होता। भारतवर्ष ने जो कुछ भी दिया अथवा इँगलैंड ने जो कुछ भी लिया वह केवल उन सेवाओं का मूल्य था जो इंगलैंड ने की या उस पूँजी का सूद था जो इंगलैंड ने भारतवर्ष की उन्नति के लिए लगाया। यही नहीं, इंगलैंड के शासन में आने पर भारतवर्ष की ऐसी उन्नति हुई जैसी कि उसके इतिहास में कभी नहीं हुई थी। मिस मेयो दूसरे दल के लेखकों का पक्ष समर्थन करती है और उन्हीं के दृष्टिकोण से विचार करती है।

गतांश में हम यह दिखला चुके हैं कि पलासी के युद्ध उससे ठीक पूर्व दो शताब्दियों से भी अधिक काल तक इँगलैंड की आर्थिक स्थिति क्या थी? हम यह भी दिखला चुके हैं कि किस प्रकार भारतवर्ष का