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भारतवर्ष—'दरिद्रता का घर'

हो जाना, जो वास्तव में उन्हीं के नौकर चुराते हैं, पर ज़मींदारों के मत्थे जाता है—के लिए उनसे रुपये ऐठते हैं[१]।"

इस करुण-कथा के इस अंश को विलियम बाल्ट्स नामक एक अँगरेज़ व्यापारी ने निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है:—

"इस देश का भीतरी व्यापार वर्तमान समय में जिस रूप में है और कम्पनी ने जिस विचित्र ढङ्ग से योरप के लिए पूँजी लगा रक्खी है उसको देखते हुए अब यह सचाई के साथ कहा जा सकता है कि यह व्यापार आदि से अन्त तक अत्याचारों से भरा है। इसका लज्जाजनक परिणाम प्रत्येक जुलाहे तथा कारीगर पर भीषण रूप से प्रकट हो रहा है। कोई भी वस्तु जो तैयार होती है उसके क्रय-विक्रय का एक-मात्र अधिकार कम्पनी को होता है। अँगरेज़ अपने बनियों और गुमाश्तों के साथ स्वेच्छापूर्वक यह निर्णय कर दिया करते हैं कि प्रत्येक कारीगर को कितना माल तैयार करके देना पड़ेगा और उसके बदले में उसे क्या मिलेगा?........औरङ्ग या दस्तकारी के क़स्बे में पहुँचने पर गुमाश्ता एक मकान में डेरा डाल देता है। उस मकान को वह अपनी कचहरी कहता है। वहां वह अपने चपरासियों और हरकारों से दलालों, पैकारों तथा बुनकरों को बुलवाता है बुनकरों को वह अपने मालिकों के हुए रुपयों में से कुछ पेशगी दे देता है और उनसे यह प्रतिज्ञापत्र लिखवा लेता है कि मैं अमुक तिथि को अमुक वस्तुएँ अमुक मूल्य पर तैयार करके दूँगा। इस लिखा-पढ़ी में ग़रीब बुनकर की स्वीकृति लेने की प्रायः आवश्यकता नहीं समझी जाती। कम्पनी के गुमाश्ते जो चाहते हैं उनसे लिखवा लेते हैं। और यदि गुमाश्ते अत्यन्त न्यून होने के कारण पेशगी के रुपये को लेना अस्वीकार करते हैं तो वे रुपये उनकी कमर में बाँध दिये जाते हैं और उन्हें कोड़े मार कर भगा दिया जाता है।.........कम्पनी के गुमाश्तों के रजिस्टरों में प्रायः इन बुनकरों के नाम लिखे रहते हैं और इन बुनकऱों को कम्पनी के अतिरिक्त और किसी का काम करने की आज्ञा नहीं दी जाती। जब एक गुमाश्ते के स्थान पर दूसरा गुमाश्ता आता है तो गुलामों की तरह ये सब बुनकर भी उसके सिपुर्द कर जाते हैं और बराबर उनके साथ अत्याचार और दुष्टता का बर्ताव होता रहता है। इस विभाग में दुष्टता तो इतनी अधिक की जाती है कि कोई उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। बेचारे बुनकरों को सब प्रकार से ठगा जाता है। कम्पनी के गुमाश्ते और जँचेन्दर (सूत की परीक्षा करनेवाले) मिल कर वस्त्रों का जो मूल्य नियत करते हैं


  1. रमेशदत्त द्वारा उनकी 'ब्रिटिश शासन के आरम्भ में भारत की दशा' नामक पुस्तक से उद्धृत। पृष्ठ २३-२४।