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भारतवर्ष-'दरिद्रता का घर'


ईसवी में प्रत्येक साझीदार को उतनी ही बढ़ोतरी प्राप्त हुई जितनी कि उसकी पूजी थी। और इस प्रकार द्विगुणित हुई पूँजी पर प्रत्येक हिस्सेदार को उसके पश्चात् पांच वर्षों तक औसत २० प्रतिशत का लाभ होता रहा*[१]।"

१६७७ ईसवी में स्टाक का मूल्य २४५ प्रतिशत था। १६१ ईसवी में यह बढ़ कर ३०० होगया और उसके पश्चात् ३६. और ५०० तक बढ़ा। कम्पनी के लाभ में कोई कमी होती थी तो उसका कारण केवल इंगलैंड के ताज की भेंट, अँगरेज़ एक्सचेकर की मांग या उसके नौकरों की बेईमानी थी।

उस समय व्यापार की तुला पूर्ण रूप से भारतवर्ष के अनुकूल थी। ब्रिटिश इतिहासकार ऊर्स अपनी 'हिस्टारिकल फ्रेगमेंट्स' नामक पुस्तक में लिखता है कि रुई के कपड़े का व्यवसाय समस्त भारतवर्ष में होता था। जिस रुपये की दर आज-कल १ शिलिंग ६ ल है पहले वही २ शिलिंग ८ पेंस का होता था। यह भारतवर्ष की आर्थिक स्थिति थी।

अब ज़रा इँगलेंड की भी आर्थिक स्थिति पर विचार कर लीजिए। राबर्टसन का कहना है कि 'सोलहवीं शताब्दी में इंगलैंड बहुत पिछड़ा हुअा देश था; और समस्त धनी देशों के पूंजीपति लोग जो सूद पर रुपया देना चाहते थे, इसी की ओर देखते थे।' मिल का कहना है कि-'सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भकाल में अँगरेजों में उच्च लोगों की प्रतिद्वन्द्विता करने की क्षमता नहीं थी, क्योंकि उनका देश कुशासन के कारण कुचल गया था और गृहयुद्ध के कारण उजाड़ हो गया था। वह व्यापार बढ़ाने या व्यापार की रक्षा करने के लिए पूजी नहीं लगा सकता था।'

सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में केवल इंगलैंड की ही नहीं बल्कि समस्त योरप की परिस्थिति बड़े भयङ्कर रूप से बिगड़ गई थी। अक आदम्स के लेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। आदम्स कहते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में योरप रुपये से करीब करीब शून्य होने की दशा में पहुंच गया था। इसका कारण यह था कि व्यापार में योरप का सारा धन एशिया को

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  1. * मेकाले-लिखित इँगलेंड का इतिहास, भाग ५, पृष्ट २०९४