यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०३
गाय भूखों क्यों मरती है?

मिस मेयो को यह शिकायत है कि सरकार ने पशुओं की देख-रेख का कार्य भारतीयों को दिये गये अधिकारों में सम्मिलित करके बुद्धिमानी का कार्य नहीं किया; क्योंकि इससे बेचारे पशु अँगरेज़ों की कृपा से वञ्चित हो गये हैं। परन्तु क्या ब्रिटिश शासन के अधीन भारतवर्ष में पशुओं की कुछ उन्नति हुई है? इस विषय के हाल के ही प्रामाणिक लेखक श्रीयुत एन चैटर्जी बड़ी सावधानी और प्रमाण के साथ अपनी पुस्तक में लिखते हैं[१]:––

"समस्त भारतवर्ष में पशुओं की दशा अत्यन्त शोचनीय हो रही है। किसी जिले के 'गज़ेटियर' के पृष्ठों को पलटिए, पशुओं के सम्बन्ध में सरकारी और ग़ैर सरकारी विवरणों को देखिए; तब आपको पता चलेगा कि सर्वत्र एक यही शिकायत है कि पशु क़द में छोटे हो गये हैं, उनकी दूध देने की शक्ति बहुत घट गई है, और वे खेती या खींचने के काम के लिए बड़े निर्बल हो गये हैं।"

पुनश्च[२]:-

"उनकी जाति बड़ी शीघ्रता के साथ निकम्मी होती जा रही है। जिस प्रकार उनकी शक्ति का हास हो रहा है उसी प्रकार उनकी दूध देने की मात्रा भी घटती जा रही है। अकबर के शासनकाल में 'दिल्ली' की बहुत सी गायें बीस बीस सेर दूध देती थीं और दस रुपये से अधिक दामों में कदाचित् ही बेची जाती थीं।"

"वे (गायें) घोड़ों से तेज़ चल सकती थीं और शेरों तथा हाथियों से लड़ सकती थी[३]। अब से केवल २५ वर्ष पहले औसत दर्जे पर बङ्गाल की गायें ३ से ५ सेर तक दूध देती थीं। पर अब यह मात्रा घट कर केवल प्रति गाय प्रति दिन १ सेर रह गई है[४] और यही अवस्था प्रायः भारतवर्ष के सब भागों के दूध देनेवाले पशुओं की हो गई है[५]।"

'मनुष्य की दया' आर्थिक समस्याओं से बिल्कुल स्वतंत्र नहीं होती। और न वह सरकार की कार्य-शीलता या अकर्मण्यता के प्रभावों से ही वज्चित रह सकती है।


  1. चैटर्जी कृत उसी पुस्तक से, पृष्ठ ४१
  2. उसी पुस्तक से, पृष्ठ १२।
  3. वर्नियर, चैटर्जी द्वारा उद्धत।
  4. ब्लैक उड़,––'बङ्गाल के पशुओं की जाँच और गणना' कलकत्ते के इँगलिशमैन नामक समाचार पत्र में प्रकाशित; चैटर्जी द्वारा उद्धत।
  5. सर जान उडरोफ़, चैटर्जी द्वारा उद्धत।