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हिन्दुओं का स्वास्थ्य-शास्त्र

भोजन करने के लिए भी यथेष्ठ धन नहीं पाता उससे स्वच्छ पोशाक बनवाने के लिए द्रव्य प्राप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। पास-पड़ोस की स्वच्छता का प्रबन्ध रखना राष्ट्रीय और स्थानिक शासन का काम है, व्यक्तियों का नहीं। दक्षिण भारतवर्ष में––विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण जहाँ शीत नहीं पड़ता, या अधिक नहीं पड़ता वहाँ आप सब जाति के हिन्दुओं को देखेंगे कि वे अपने शरीर की और अपने गृहों की बड़ी सावधानी के साथ सफ़ाई रखते हैं। उनके पास-पड़ोस के स्थान उतने ही स्वच्छ होते हैं जितने कि एक विदेशी शासन-प्रबन्ध में––जिसके नियम, उद्देश्य, सिद्धान्त सब विदेशी होते हैं––हो सकते हैं। इसके विपरीत उत्तरी भारतवर्ष में जहाँ ६ मास शीतकाल रहता है (पञ्जाब, अवध, विहार, और आसाम के समान कुछ भागों में कड़ाके का जाड़ा पड़ता है) परिस्थिति सर्वथा भिन्न होती है तो भी जहाँ तक शारीरिक स्वच्छता का सम्बन्ध है प्रत्येक स्थान के और प्रत्येक जाति के हिन्दू, निम्न श्रेणियों के भी बड़ी सावधानी से काम लेते हैं।

इस सम्बन्ध में हिन्दुओं की धार्मिक पुस्तकों का हवाला देना भी लाभदायक होगा। इससे उनकी व्यक्तिगत और सार्वजनिक स्वच्छता का मूलाधार विदित हो जायगा। हिन्दुओं के धर्म-शास्त्रों और चिकित्सा शास्त्रों में स्वच्छता के जो आदर्श रक्खे गये हैं वे प्राचीन जगत् में अन्यत्र बहुत कम देखने में आते हैं। गोंडाल के हिज़ हाइनस ठाकुर साहब ने (जो लन्दन के एम॰ डी॰ हैं और ए॰ डी॰ सी॰ एल॰; एफ॰ आर॰ सी॰ पी॰ ई॰ आदि भी हैं) अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक––आर्य-चिकित्सा-शास्त्र के एक अध्याय में इस विषय की विवेचना की है। स्नान-सम्बन्धी धार्मिक कर्तव्य के विषय में हम ठाकुर साहब के ग्रन्थ में पड़ते हैं[१]:––

"हिन्दुओं में स्नान उनके धार्मिक कर्तव्यों का एक अङ्ग माना

गया है। मनु की आज्ञा है––प्रातःकाल उठ कर मनुष्य हाथ मुँह धोवे, दाँत साफ़ करे, स्नान करे, अपने शरीर का शृङ्गार करे, आँखों में काजल लगावे और देवताओं का पूजन करे।" (अध्याय ४, श्लोक २०३) इसी प्रकार


  1. आर्य-चिकित्सा-शास्त्र का संक्षिप्त इतिहास (मैकमिलन १८९६) पृष्ठ ६२।