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शीघ्र विवाह और शीघ्र मृत्यु

यदि केवल बाल विवाह ही राष्ट्रों को असमर्थ करने के लिए यथेष्ट होता तो इतिहास पर यूनान, रोम और हिब्रू जातियों का इतना स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सकता था।

सच बात तो यह है कि बाल विवाह जैसी घातक वस्तु को समाज बिना किसी प्रतीकार के कदाचित् ही प्रचलित रहने दे सकता है। भारतवर्ष में जिन जातियों में बाल विवाह प्रचलित है उनमें विवाह-संस्कार के यथेष्ट समय पश्चात् गौना करने की रीति द्वारा इसके कुपरिणामों से बचने की व्यवस्था भी कर दी गई है। विवाह इस प्रकार एक प्रतिज्ञा के समान ही रह जाता है। और बाल-विवाह का अर्थ है केवल आगे चलकर बालकों का विवाह कर देने की प्रतिज्ञा।

सब हिन्दुओं में बाल विवाह की प्रथा नहीं है। निम्न जातियों में प्रायः बड़ी अवस्था में विवाह होता है। बड़ी जातियों में भी गौने की प्रथा द्वारा इसके कुपरिणामों से बचने की पूर्ण व्यवस्था पाई जाती है। समस्त योग्य निरीक्षकों का ध्यान इस बचाव की प्रथा की ओर गया है। उनमें सर हरबर्ट रिसले और सर एडवर्ड गेट विशेष उल्लेखनीय हैं। इन दोनों महानुभावों ने मनुष्य-गणना के कमिश्नर के पद पर काम करके इस सम्बन्ध में पर्याप्त अनुभव प्राप्त किया था।

रिसले और गेट १९०१ ईसवी की मनुष्य-गणना के विवरण में ४३३ पृष्ठ पर लिखते हैं:–

"जिसने पञ्जाबी सैनिकों का दल कहीं से निकलते हुए देखा है या गाँव के कुओं पर स्वस्थ जाट स्त्रियों को जल से भरे भारी घट उठाते देखा है उसके हृदय में यह बात नहीं पैदा हो सकती कि बाल विवाह का जाति के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।"

इसके पहले पञ्जाब की सेंसस रिपोर्ट में सर डेंज़िल इवस्टन ने लिखा था कि पञ्जाब में राजपूत लोग १६ वर्ष की आयु में विवाह करते हैं और शीघ्र ही स्त्री के साथ सहवास आरम्भ कर देते हैं। इसके विरुद्ध जाट लोग प्रायः ५ और ६ वर्ष के बीच में विवाह करते हैं परन्तु वधू अपने