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प्राचीन भारत में स्त्रियों का स्थान


साथ विवाह करने के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। सबसे बड़े भारतीय नाटककार कालिदास ईसा से पूर्व पाँचवीं शताब्दी में हुए थे। उनकी रचनाओं में सर्वश्रेष्ट शकुन्तला एक वयस्क कुमारी थी। उसने दुष्यन्त की प्रेम-प्रार्थना को बिना अपने पिता की अनुमति की प्रतीक्षा किये स्वीकार कर लिया था। उसकी सखियाँ भी युवती कुमारियाँ थीं। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वान चांग ने एक ब्राह्मण युवक और एक कुमारी के विवाह का उल्लेख किया है। विवाह के ही समय से दोनों एक साथ रहने लगे और एक ही वर्ष पश्चात् स्त्री ने एक शिशु को जन्म दिया। यह छठी शताब्दी की बात है। ग्यारहवीं शताब्दी का मुसलमान लेखक अलबेरूनी लिखता है कि 'हिन्दुओं में बहुत कम आयु में विवाह हो जाता है इसलिए माता-पिता अपनी सन्तान के विवाह का प्रबन्ध करते हैं।' हम समझते हैं कि हमारा इस निश्चय पर पहुँचना उचित होगा कि मुसलमान राज्य प्रारम्भ होने के समय इस प्रथा का निर्माण हो रहा था। और सुसलमानी राज्य ने इसे और भी प्रबल कर दिया। इसका कारण यह था कि इसलाम-धर्म में विवाहिता स्त्रियों को भी अपहरण करके गुलाम बनाने की आज्ञा नहीं थी।

अब सूत्रों और स्मृतियों की ओर ध्यान दीजिए तो ज्ञात होगा कि बालविवाह की धारणा के वशीभूत होने के कारण ही माता-पिता यह कल्पना कर लेते थे कि स्व-पुत्रों और स्व-पुत्रियों पर उनका बहुत बड़ा अधिकार है। हिन्दू स्मृतिकारों को यह अधिकार स्वीकार कर लेने में कोई कठिनाई नहीं हुई। परन्तु जब वे स्त्रियों के प्रति पुरुषों के व्यवहार-सम्बन्धी सिद्धान्तों की व्याख्या करने बैठे तब उन्हें समाज की भिन्न भिन्न स्थितियों में एक विचित्र मतभेद का सामना करना पड़ा। एक ओर तो श्रार्यों की स्त्रियों के प्रति उच्च सम्मान की भावना थी और दूसरी ओर यह धारणा थी कि स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं होना चाहिए । एक ओर हम मनु का यह सिद्धान्त पाते हैं कि*[१]:-

"उन पिता, भाई, पति और देवरों के द्वारा स्त्रियों की पूजा होनी चाहिए जो यह चाहते हैं कि उन्हें अधिक उन्नति प्राप्त हो।"

  1. * मनुस्मृति अध्याय ३।५५-५९