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चाण्डाल से भी बदतर-समाप्त


अफ़्रीका निवासी जिधर मुँह मोड़ते हैं उधर ही यह उन पर थप्पड़ जमाती है। यह उनके सङ्गठन को नष्ट करती है, उन्हें उनकी भूमि से उखाड़ती है, उनके गाहस्थ्य-जीवन पर आक्रमण करती है, उनके प्राकृतिक साधनों को नष्ट करती है, उनके सम्पूर्ण समय पर दावा करती है और उन्हें उन्हीं के घर में गुलाम बनाकर रखती है।"

इस लूट-खसोट का इतिहास देना या इसके कारण प्रादि-निवासियों की जो दुर्दशा हो रही है उसका वर्णन करना हमारे विषय के बाहर की बात है। परन्तु हम कुछ ऐसी घटनाएँ दे सकते हैं जो गोरे-साम्राज्यवाद की 'दयालु' नीति पर प्रकाश डालेंगी। हमारा संग्रह केवल अफ्रीका में रबर की खेती तक ही परिमित रहेगा। कांगो में रबर की खेती के सम्बन्ध में लिखते हुए श्रीयुत मोरेल लिखते हैं*[१]-

"अब हमें उस प्रणाली के कारनामों का वर्णन करना है जिसे कयनन डायल ने 'समस्त इतिहास में सबसे बड़ा पाप कहा था; सर सिडनी ओलवियर ने 'प्राचीन गु़लामी की प्रथा का परिवर्तित स्वरूप कहा था, ब्रिटेन के प्रधान पादरी ने तत्कालीन समस्त राजनैतिक प्रश्नों से बहुत ऊपर की बात कहा था; और एक विदेश के लिए ब्रिटिश मंत्री ने 'अत्यन्त स्वार्थी आचरण की स्वार्थ-साधना के लिए अत्यन्त पाशविक और निदर्य परिस्थितियों का बन्धन' बताया था। ये उद्धरण इसी प्रकार के वक्तव्यों के समूह से लिये गये हैं। इस प्रकार के वक्तव्यों से एक पूरी पुस्तक भर देना बड़ा सरल काम होगा। सब देशों के, सब श्रेणियों के और सब पेशों के मनुष्य व्यवस्थापिका सभाओं में व्याख्यान-सञ्चों पर, धर्म-वेदियों से और समस्त संसार के समाचार-पत्रों के द्वारा दस वर्ष से भी अधिक समय से इसी प्रकार चिल्ला रहे हैं। और इस बात को कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि समुद्र-पार गुलाम ले जाकर बेचने की प्रथा के बन्द हो जाने के बाद से अफ्रीका में योरपवालों ने जो अनाचार किये हैं वे सब कांगो की दुर्घटना के सामने फीके पड़ जाते हैं और कुछ भी नहीं ऊँचते। साना, उद्देश और अवधि पर विचार किया जाय तो निःसन्देह कोई तुलना सम्भव नहीं हो सकती।"

  1. * वही पुस्तक पृष्ठ १०५