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दुखी भारत


रियासत ने उनका यह अधिकार १८०७ में ही छीन लिया था। 'कनेक्टिकट रियासत ने १८१४ में और 'पेनसिल वैनियां' राज्य ने १८३८ में छीन लिया। बुकर टी॰ वाशिङ्गटन लिखते हैं कि—'वे समस्त परिवर्तन इस बात के प्रमाण हैं कि संयुक्त राज्य के उत्तर और दक्षिण दोनों भागों में क्रमशः एक प्रकार के वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति हो रही है। जिसमें केवल वर्ण-भेद के कारण हबशियों को साधारण नागरिक के स्वत्वों से भी वञ्चित किया जा रहा है।' १८०२ ईसवी में 'ओहियो राज्य में जो हबशी जाते थे उनसे १०० का पट्टा माँगा जाता था। उस समय स्वतंत्र होने पर भी हबशी किसी ऐसे मुकदमे में गवाही नहीं दे सकता था जिसमें किसी गोरे मनुष्य के विरुद्ध अपराध लगाया जाता था। और उस समय सार्वजनिक स्कूलों में भी हबशी भर्ती नहीं किये जाते थे। इसी प्रकार के नियम अन्य राज्यों में भी बनाये गये थे। १८३३ ईसवी में न्यायालय की ओर से यह निर्णय सुनाया गया था कि स्वतंत्र हबशी 'व्यक्ति' हो सकता है 'नागरिक' नहीं।

"कुछ राज्यों में हबशियों को दवा बेचने की आज्ञा नहीं थी, कुछ में वे गेहूँ या तम्बाकू नहीं बेच सकते थे। कुछ में उनका बाज़ार की वस्तुएँ लेकर फेरी करना या नौका रखना कानून के विरुद्ध था। कतिपय राज्यों में स्वतन्त्र हबशी का राज्य सीमा पार करना भी कानून के विरुद्ध समझा जाता था और कुछ में जब कोई हबशी दासता से मुक्त किया जाता था तो उसे उसी समय वह राज्य छोड़ देने के लिए विवश होना पड़ता था।"

दासता की प्रथा केवल सिद्धान्त-रूप में ही उठाई गई थी। क्योंकि हबशियों ने सिद्धान्त-रूप में भी जो कुछ प्राप्त किया था, उससे उन्हें वञ्चित करने के लिए एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। और वह थोड़ा थोड़ा करके मिस मेयो के इन शब्दों में प्रकट होने लगा कि 'अधीन कुत्ते को उसके पिंजड़े में बन्द कर रखने के लिए एक ही नहीं, अनेक उपाय हैं।'

मिस्टर 'उशर'[१] कहते हैं "दक्षिणी रियासतों के क्रोध और प्रतीकार का फल यह हुआ कि नवीन विधान में ऐसे ऐसे वाक्य जोड़े गये जिनका अर्थ यह


  1. 'अमरीका की जातियों का उत्थान'