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छठा अध्याय
अनिवार्य्य आरम्भिक शिक्षा का इतिहास

भारतवर्ष की अनिवार्य्य आरम्भिक शिक्षा के इतिहास से ब्रिटिश सरकार की विमाता जैसी प्रवृत्तियों का पूर्ण परिचय मिल जाता है। इस सम्बन्ध में पहला बिल स्वर्गीय गोखले ने प्राचीन बड़ी व्यवस्थापिका सभा में १९११ ई॰ में उपस्थित किया था। 'अभी ऐसी कड़ी व्यवस्था का समय नहीं आया।' 'आवश्यक व्यय के लिए धन कहाँ मिलेगा?' 'जनता धार्मिक दृष्टि से अनिवार्य्य पद्धति के विरुद्ध है।' आदि बनावटी बातों के आधार पर सरकार ने इसका विरोध किया था।

दूसरा प्रयत्न माननीय मिस्टर वी॰ जी॰ पटेल ने १९१६ ई॰ में किया था। उनके बिल का आशय यह था कि बम्बई प्रान्त के कुछ आगे बढ़े हुए हिस्सों में म्युनिसिपैल्टियों में यदि वे चाहें और सरकार द्वारा कुछ निर्धारित नियमों का पालन करना स्वीकार करें तो उन्हें निःशुल्क और अनिवार्य्य आरम्भिक शिक्षा जारी करने की आज्ञा दे दी जाय। बम्बई प्रान्त की व्यवस्थापिका सभा में यह बिल सरकारी बहुमत से गिर गया। सरकारी पक्ष ने यह बहाना किया था कि इस बिल के पास होने से केन्द्रीय सरकार की शिक्षा-सम्बन्धी नीति की अवहेलना होगी क्योंकि उसने १९१२ ई॰ में घोषित किया था कि अभी 'अनिवार्य्य आरम्भिक शिक्षा के लिए कानून बनाने का समय नहीं आया।'

इसके पश्चात् का इतिहास १९१७-१९२२ की शिक्षा सम्बन्धी सरकारी रिपोर्ट के १९० और १९१ पैराग्राफ़ों में दिया हुआ है, जिससे पता चलता है कि इस प्रकार के विधानों का सूत्रपात प्रायः हिन्दू सदस्यों की ओर से होता था। अब अनिवार्य्य आरम्भिक शिक्षा के कानून को व्यवहार में लाने का कार्य्य ज़िला और म्युनिसिपल बोर्डों की इच्छा पर छोड़ दिया गया है। मिस मेयो ने अपनी पुस्तक में इस कानून की व्यावहारिकता के सम्बन्ध