यह सच है कि दोनों दशाओं में देश के लोगों को अत्यन्त लज्जा अधःपतन और आर्थिक-हानि का कष्ट सहना पड़ता है। पर अन्त में विजित और विजेता आपस में मिल जाते हैं। दोनों एक दूसरे में अपना रक्त मिला देते हैं, दोनों एक दूसरे की सभ्यता और रहन-सहन के तरीकों को ग्रहण कर लेते हैं और दोनों अपनी सुदृढ़ विशेषताओं से एक नई सभ्यता और नई जाति की सृष्टि करने का प्रयत्न करते हैं। इन दोनों हालतों में विदेशी शासन का शाप ऐसा तीक्ष्ण, पीड़ाजनक, विनाशक और अपमानकारक नहीं होता जैसा कि तब होता है जब एक जाति दूसरी पर अपना शासन लाद देती है और उसे अपने सम्पूर्ण राजनैतिक, आर्थिक और सैनिक-बल के द्वारा बनाये रखती है। एक अकेले बादशाह या शासक से दया, उदारता और न्याय-भाव की प्रार्थना करने पर किसी अंश में सफलता हो भी सकती है पर एक जाति या प्रजातंत्र से प्रार्थना करने पर कभी नहीं हो सकती। ग़ैर जाति पर किसी प्रकार का शासन-विधान ऐसा कठोर और निर्दयतापूर्ण नहीं होता जैसा कि प्रजातन्त्र का। प्रजातान्त्रिक शासन घरेलू कामों के लिए अच्छा हो सकता है परन्तु दूसरी जातियों के हक में उसका परिणाम भयङ्कर होता है और अनन्त बुराइयों की आशङ्काओं से भरा रहता है।
राजनैतिक ग़ुलामी सामाजिक बुराइयों और राष्ट्रीयअपराधों के दण्डस्वरूप प्राप्त होती है। पर एक बार लद जाने से यह उन बुराइयों को बढ़ने और घनीभूत होने में और भी मदद देती है। यह राष्ट्र को फिर से ज़िन्दा होने या उठने से बुरी तरह रोकती है। यह सामाजिक कुरीतियों और कमजोरियों को सबसे आगे ला धरती है। यह मानसिक, नैतिक और शारीरिक सब प्रकार की भयानक ग़रीबी की ओर ले जाती है। यदि जाग्रति के कभी कोई लक्षण प्रकट होते हैं तो वे देर से उपस्थित होने पाते हैं या क़ानून, कूटनीति, मक्कारी और धोखेबाज़ी की पूरी शक्ति से रोके और कुचल दिये जाते हैं। पराधीन जातियों को हीन से हीन दशा में दिखलाना और लेखों तथा व्याख्यानों द्वारा उनको निर्लज्जता के साथ झूठ मूठ बदनाम करना साम्राज्यवाद का एक अङ्ग है। इसका उद्देश्य है पराधीन जातियों में दासता का भाव उत्पन्न करना और उसे दृढ़ रखना तथा उनके अधिकार, सम्पत्ति और