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एक महान् वकील


शिक्षा-विषयक पुस्तक में कतिपय साधारण सिद्धान्तों का वर्णन किया था। उनको मैं यहाँ संक्षेप में दे देना चाहता हूँ।

१—राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार अत्यन्त निश्चयपूर्ण और लाभदायक व्यापार है। राष्ट्र की रक्षा के लिए इसकी उतनी ही आवश्यकता है जितनी देश की रक्षा के लिए फ़ौज की। सरकार की ओर से सार्वजनिक शिक्षा की पूर्ण रूप से व्यवस्था होनी चाहिए और सरकारी कोष पर सबसे प्रथम इसी का अधिकार होना चाहिए। जनता के निजी कोषों और संस्थाओं द्वारा सारे राष्ट्र के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना व्यर्थ है। इसके लिए उद्योग करना असम्भव के लिए उद्योग करना है। इसके अतिरिक्त यह सरकार के कर्तव्यों से जनता का ध्यान हटा देता है। राष्ट्रीय शिक्षण-पद्धति का प्रचार, प्रयोग, उसकी सहायता और शासन सब राष्ट्र को ही करना चाहिए। और इस कार्य्य-सञ्चालन में सरकार को राष्ट्र का प्रतिनिधि-स्वरूप होना चाहिए।

२—अब तो यह पुराना ख़याल भी जाता रहा कि सरकार का काम केवल आरम्भिक शिक्षा के लिए व्यवस्था करना है। समस्त संसार ने यह बात स्वीकार कर ली है कि सरकार का काम आरम्भिक शिक्षा से ही समाप्त नहीं हो जाता। राष्ट्र की आर्थिक और औद्योगिक योग्यता कला-कौशल-सम्बन्धी और औद्योगिक शिक्षा पर निर्भर है। और उसकी व्यवस्था भी सरकार को ही करनी चाहिए। सरकार उच्च कोटि की शिक्षा की भी उपेक्षा नहीं कर सकती क्योंकि उसी पर बुद्धिमत्ता और योग्यतापूर्ण नेतृत्व निर्भर है।[१]

३—कुछ पुस्तकें पढ़ा देना या पढ़ना-लिखना और गिनती सिखा देना ही शिक्षा नहीं है। इसमें बालकों की शारीरिक उन्नति की व्यवस्था करना भी सम्मिलित है। इसे बालकों की स्वास्थ्य-रक्षा की व्यवस्था करनी होती है और


  1. संयुक्त राज्य अमरीका की फेडरल सरकार ने १९२३-२४ में केवल उच्च कोटि की शिक्षा पर १,८०,८३,२१,४२० स्टर्लिंग व्यय किया था। १९१३ ई॰ में ५५,५०,७७,१४६ स्टर्लिंग व्यय किया था। और १९१८ से १९२६ तक में केवल फेडरल सरकार ने ३८ करोड़ डालर औद्योगिक शिक्षा पर व्यय किया था। और अब ७ करोड़ से ऊपर डालर प्रति वर्ष खर्च करती है। अमरीकन इयर बुक, पृष्ठ १०७२ और १११०