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एक महान् वकील


में भारतीय मंत्री बिलकुल स्वतंत्र नहीं हैं। राष्ट्रीय भारत दत्त और अदत्त विभागों के लिए कर के अनुचित बटवारे पर बराबर घोर असन्तोष प्रकट करता रहा है। दत्त विभागों के सञ्चालक शीघ्रता के साथ कोई सुधार करने में असमर्थ हैं क्योंकि करों के बटवारे में न जनता के प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता है न मंत्रियों को। यह पूर्णतया एकाधिपत्या कार्य्यकारिणी समिति पर निर्भर है। यह ऊपर से भारी शासन प्रणाली जो इम्पीरियल सर्विसों के लिए जिनका कि व्यय वैसे ही बहुत बढ़ा हुआ है, एक करोड़ से भी अधिक, विशेषव्यय बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेती है और जो सेना-विभाग पर प्रतिवर्ष करीब ८० करोड़ रुपया व्यय करती है, मंत्रियों को सौंपे गये राष्ट्र के निर्माण करनेवाले विभागों पर कभी भी पर्य्याप्त धन व्यय नहीं करती।' भारत-सरकार के शिक्षा मंत्री श्रीयुत ऋची महोदय कहते हैं[]:—

"वर्तमान समय में भारत की केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों की जो खूब मुट्ठी बांध कर आर्थिक सहायता देने की अवस्था है उससे निकट भविष्य में शिक्षा सम्बन्धी कोई उल्लेखनीय उन्नति होने की आशा नहीं है। शिक्षा के नवीन प्रान्तीय मंत्रीगण अपने स्कूलों पर किये गये हमलों को सफलता के साथ रोकने के पश्चात् अब इस विचार से अपनी शिक्षा सम्बन्धी स्थितियों का सङ्गठन कर रहे हैं कि आवश्यक आर्थिक सहायता के प्राप्त होते ही क्रमबद्ध उन्नति के कार्य प्रारम्भ कर दें। इस प्रकार की उन्नति में, नई कौंसिलों ने जो उत्साह प्रदर्शित किया है उससे जान पड़ता है कि लोकमत उनका समर्थन करेगा.....।"

इँगलैंड में कोई फिशर युद्ध के समय में भी अपनी जनता से कह सकता है कि शिक्षा पर व्यय करना लाभ के व्यापार में रुपया लगाना है। किफ़ायत की देशव्यापी आवाज़ उसे सर्वसाधारण की शिक्षा के लिए महान् आयोजना करने से नहीं डिगाती। पर यदि फिशर महाशय भारतीय मंत्री होते तो उनसे मिस्टर ऋची कहते कि 'भारत में शिक्षा सम्बन्धी सुधार का कोई छोटा मार्ग नहीं है।'


  1. भारत में शिक्षा-वृद्धि-सम्बन्धी प्रति पांच वर्ष में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका, भाग १ संख्या ८ पैराग्राफ ३९