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दुखी भारत


मिलेगा। सदैव आपको बतलाया जायगा कि (शिक्षा ही सब योग्यताओं की कुञ्जी है) (कोष्ठक के शब्द हमारे हैं)

मिस मेयो ने शिक्षा और द्रव्योपार्जन पर कुछ विचार प्रकट करने की चेष्टा की है। अपनी पुस्तक के 'मुझे नौकरी दो या मृत्यु' नामक अध्याय में उसने भारतवासियों के प्रति अपनी घृणा को केन्द्रीभूत करने का प्रयत्न किया है। इस सम्बन्ध में श्रीयुत फिशर के मैनचेस्टर में दिये गये व्याख्यान का यह अंश बहुत ही सुन्दर है:—

"मैं समाज की एक ऐसी स्थिति के लिए तर्क करने की चेष्टा करूँगा जिसमें युवक के कर्त्तव्यों में शिक्षा को पहला स्थान दिया जाय और द्रव्योपार्जन को दूसरा। यह नियम केवल एक जाति के लिए न हो पर युवक-मात्र के लिए हो। अभी तो धनी लोग शिक्षा लाभ करते हैं और ग़रीब लोग द्रव्योपार्जन करते हैं।

"शिक्षा एक स्वर्गीय ऋण है जिसके लिए आयु की परिपक्वता युवक की ऋणी होती है। अब हमें इस बात की परवाह न करनी चाहिए कि युवक धनी है या गरीब। हमारे ऊपर उसे शिक्षा देने का ऋण है—समस्त शिक्षा जो वह प्राप्त कर सकने के योग्य हो और समस्त शिक्षा जो हम दे सकें।"

जहाँ ब्रिटिश सरकार की देख-रेख में अर्थात् भारतवर्ष में शिक्षा का स्वर्गीय ऋण इतनी अयोग्यता से अदा किया जाता है वहाँ युवकों से शिक्षा को द्रव्योपार्जन से पहले रखने की आशा करने से कोई लाभ नहीं।

कोई व्यक्ति यह आशा कर सकता था कि मिस मेयो जो अमरीका से आ रही है भारतवर्ष की शिक्षा-सम्बन्धी समस्या को प्रभावित करने के लिए अपने साथ कुछ उदार और व्यापक विचार ले आई होगी। परन्तु उसका एकमात्र उद्देश था ब्रिटिश-शासन पर चूनाकारी करना और भारतवासियों के मुंह पर कोयला पोतना। इस बात की उसने खूब खाल निकाली है कि १९१९ में बने सुधार कानूनों के अनुसार शिक्षा का कार्य्य भारतवासियों को सौंप दिया गया है और अब इसका सम्पूर्ण उत्तरदायित्व भारतीय मंत्रियों पर है। यहाँ भी उसने वास्तविक समस्या समझने की पूर्ण अयोग्यता दिखलाई है। वह यह समझने में असफल रही कि इस सम्बन्ध